जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 24 अगस्त ::
परंपरा और बदलाव के बीच बिहार की राजनीति-

बिहार की राजनीति हमेशा जातीय समीकरण, सामाजिक संतुलन और नेतृत्व की चमक पर टिकी रही है। लेकिन 2025 का विधानसभा चुनाव एक नए दौर की तरफ संकेत कर रहा है। सत्तारूढ़ नीतीश कुमार और एनडीए विकास के “डबल इंजन” मॉडल का दावा कर रहे हैं, वहीं विपक्षी महागठबंधन तेजस्वी यादव की अगुवाई में परिवर्तन का भरोसा दिला रहा है। इसी बीच प्रशांत किशोर की नई पार्टी जन सुराज, तेज प्रताप यादव का अलग मोर्चा, मुकेश सहनी की वीआईपी और एआईएमआईएम जैसे दल इस बार मुकाबले को और पेचीदा बना रहे हैं। सवाल यह है कि क्या यह चुनाव बिहार की राजनीति को नई दिशा देगा?
प्रशांत किशोर – रणनीतिकार से नेता तक का सफर
चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर (पीके) इस बार सीधा राजनीतिक मैदान में हैं। उनका दावा है कि जन सुराज पार्टी यदि 140 से कम सीटें जीतती है, तो वे इसे अपनी सबसे बड़ी हार मानेंगे। भले ही अभी तक बड़ी चुनावी जीत उनकी झोली में नहीं आई, लेकिन उपचुनावों में राजद को हराकर उन्होंने संकेत दिया कि उनकी पार्टी हल्के में नहीं ली जा सकती। आलोचक उन्हें भाजपा का सहयोगी मानते हैं, लेकिन पीके का कहना है कि उनकी राजनीति सिर्फ जनता और जनहित केंद्रित है।
सबसे बड़ी चुनौती है कि क्या वे जातीय समीकरणों में अपनी जगह बना पाएंगे? यदि वे यादव-मुस्लिम समीकरण में सेंध लगाते हैं तो यह महागठबंधन के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है। हालांकि पहली बार चुनावी मैदान में उतरी पार्टी के लिए सत्ता तक पहुंचना आसान नहीं होता।
तेजस्वी यादव – विपक्ष के सबसे मजबूत चेहरा-
तेजस्वी यादव इस समय बिहार में सबसे बड़े विपक्षी ताकत हैं। उनका एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव वोट) उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। बेरोजगारी, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर उन्होंने नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। तेजस्वी का आरोप है कि सरकार उनके घोषणापत्र की नकल कर रही है।
हालांकि, उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा – बड़े भाई तेज प्रताप का अलग मोर्चा, कांग्रेस का सीट बंटवारे में दबाव और एआईएमआईएम की सीमांचल में सक्रियता। यदि इन चुनौतियों का हल निकाल लिया तो तेजस्वी सत्ता के करीब पहुंच सकते हैं।
तेज प्रताप यादव – बगावती कदम
लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप ने पांच छोटी पार्टियों के साथ मिलकर अलग मोर्चा बना लिया है और राजद-कांग्रेस को भी इसमें शामिल होने का न्योता दिया है। उनका दावा है कि उनकी जीत “लालू यादव की असली विरासत” की जीत होगी। यदि उनका प्रयोग सफल होता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान तेजस्वी यादव और पूरे महागठबंधन को होगा, क्योंकि वोट बैंक में बिखराव तय है।
मुकेश सहनी – ‘सन ऑफ मल्लाह’ की नई जंग-
मुकेश सहनी ने पिछली बार वीआईपी पार्टी के जरिये बिहार की राजनीति में जगह बनाई थी। 2020 में एनडीए से चुनाव लड़े और 5 सीटें हासिल कीं, लेकिन बाद में चार विधायक भाजपा में चले गए। अब वे महागठबंधन में हैं और उपमुख्यमंत्री पद समेत 40 सीटों की मांग कर रहे हैं। हालांकि उनका वोट बैंक स्थिर नहीं है और यदि भाजपा उन्हें फिर से साध लेती है, तो यह महागठबंधन के लिए बड़ा झटका होगा।
एआईएमआईएम और कांग्रेस – महागठबंधन में खींचतान
एआईएमआईएम ने 2020 में 5 सीट जीतकर सीमांचल में अपनी ताकत दिखाई थी। हालांकि, बाद में राजद ने उनके चार विधायकों को अपने खेमे में मिला लिया। अब ओवैसी की पार्टी महागठबंधन में शामिल होने के लिए शर्तें रख रही है। यदि शर्तें नहीं मानी गईं, तो वे फिर से महागठबंधन का नुकसान करने के लिए तैयार हैं।
इधर, कांग्रेस वर्षों से राजद की सहयोगी पार्टी के रूप में देखी जाती रही है। 2020 में 70 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन जीत सिर्फ 19 सीटों पर मिली। इस बार कांग्रेस 55 सीटों की मांग कर रही है और हाईकमान का कहना है कि मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव नतीजों के बाद होगा।
नीतीश कुमार – अनुभव बनाम चुनौतियाँ
नीतीश कुमार आज भी बिहार की राजनीति के केंद्र में हैं, लेकिन इस बार हालात चुनौतीपूर्ण हैं। भाजपा और जदयू के बीच खींचतान, चिराग पासवान की आक्रामक रणनीति, उपेंद्र कुशवाहा व जीतन राम मांझी की असमंजस जैसी स्थितियां उनके लिए मुश्किलें पैदा कर रही हैं।
“डबल इंजन की सरकार” विकास के एजेंडे को जनता तक पहुंचाना चाहती है। सीतामढ़ी का जानकी जन्मस्थान धार्मिक ध्रुवीकरण के मुद्दे के रूप में उभर सकता है। रोजगार, महिला आरक्षण और पलायन के मुद्दे भी बड़े पैमाने पर गूंज रहे हैं।
चिराग पासवान – स्वतंत्र छवि लेकिन NDA के सहारे
2020 में एनडीए का हिस्सा न होते हुए भी चिराग पासवान ने नीतीश को भारी नुकसान पहुंचाया था। इस बार भाजपा उन्हें नीतीश के खिलाफ संतुलन साधने के लिए फिर से उपयोग कर सकती है। भले ही सार्वजनिक रूप से वे नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताते हैं, लेकिन उनकी राजनीति में स्वतंत्र रुख साफ दिखाई देता है।
चुनावी मुद्दे – रोज़गार, विकास और जातीय समीकरण-
2025 का बिहार चुनाव कई अहम मुद्दों पर टिका है –
- रोजगार और पलायन – बाहर काम करने जाने वाले युवाओं का सवाल बड़ा चुनावी मुद्दा है।
- जातीय समीकरण – यादव, मुस्लिम, कुशवाहा, पासवान, मल्लाह और अन्य जातियों की वोटबैंक राजनीति अहम होगी।
- विकास बनाम वादे – नीतीश-भाजपा का विकास एजेंडा बनाम तेजस्वी का रोजगार वादा।
- महिला आरक्षण और ओबीसी कार्ड – भाजपा-जदयू का फोकस।
- धार्मिक ध्रुवीकरण – सीतामढ़ी का जानकी जन्मस्थान राम मंदिर की तरह चुनावी मुद्दा बन सकता है।
निष्कर्ष – नई पटकथा की तैयारी-
यदि महागठबंधन एकजुट रहा तो तेजस्वी एक मजबूत दावेदार होंगे। लेकिन तेज प्रताप, मुकेश सहनी और एआईएमआईएम अलग राह पर चलते हैं तो विपक्षी वोट बंट सकते हैं और एनडीए को फायदा मिलेगा।
प्रशांत किशोर भी यदि 40-50 सीटों पर असर डालते हैं तो खेल का पूरा समीकरण बदल सकता है।
बिहार के चुनाव हमेशा जातीय और सामाजिक गोलबंदी पर आधारित रहे हैं, लेकिन इस बार विकास, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दे भी उतने ही प्रमुख होंगे। एक तरफ नीतीश कुमार अनुभव और संगठनात्मक मजबूती के सहारे हैं, वहीं तेजस्वी युवा ऊर्जा और आक्रामकता लेकर मैदान में हैं। प्रशांत किशोर, तेज प्रताप यादव, ओवैसी और मुकेश सहनी जैसे खिलाड़ी इस चुनाव को त्रिकोणीय और कभी-कभी चतुष्कोणीय लड़ाई में बदल देंगे।
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