आभा सिन्हा, पटना, 25 अक्तूबर ::
‘उदय’ का ‘अस्त’ होना प्रकृति का नियम है, और ‘अस्त’ का ‘उदय’ आध्यात्मिक सत्य। इसी सत्य की अभिव्यक्ति है भगवान भास्कर की आराधना का महापर्व “छठ”, जो जीवन में पवित्रता, संयम और एकता का संदेश देता है। यह पर्व जात, धर्म, ऊँच-नीच तथा अमीरी-गरीबी के भेदभाव को मिटाकर समाज में समानता की भावना जगाता है। लोकमंगल और पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए किया जाने वाला यह व्रत मनोवांछित फल प्रदान करने वाला माना गया है।

छठ पर्व के दो रूप – चैती और कार्तिकी-
भारत में छठ का व्रत वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहला चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी को, जिसे चैती छठ कहा जाता है, और दूसरा कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को, जिसे कार्तिकी छठ कहा जाता है। इस व्रत में भगवान सूर्य देव और छठी मइया की पूजा की जाती है, जो दोनों ही सृष्टि और जीवन के प्रतीक माने गए हैं।
सूर्य देव और छठी मइया का धार्मिक परिचय-
पुराणों के अनुसार, सूर्य देव माता अदिति और महर्षि कश्यप के पुत्र हैं। माता अदिति के सभी पुत्र ‘आदित्य’ कहलाते हैं, इसलिए सूर्य का एक नाम ‘आदित्य’ भी है। सूर्य देव के पुत्रों में यमराज, शनिदेव, कर्ण और सुग्रीव प्रसिद्ध हैं, जबकि उनकी पुत्रियाँ कालिंदी (यमुना) और भद्रा कही जाती हैं।
छठी मइया, जिन्हें षष्ठी देवी भी कहा जाता है, ब्रह्मा जी की मानस पुत्री और सूर्य देव की बहन मानी जाती हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न सोलह माताओं में छठी मइया सबसे पूज्यनीय हैं। उन्हें कार्तिकेय की पत्नी के रूप में भी वर्णित किया गया है।
आस्था के साथ विज्ञान का संगम-
छठ पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। षष्ठी तिथि के दौरान सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक प्रभाव डालती हैं। इस समय किया गया व्रत मानव शरीर को उन किरणों के दुष्प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करता है। सूर्य के प्रकाश से शरीर ऊर्जावान, स्वस्थ और बुद्धिमान बनता है।
पौराणिक कथाओं में छठ का महत्व-
कथा के अनुसार, कर्ण ने सबसे पहले सूर्य देव की उपासना की थी। वे प्रतिदिन जल में खड़े होकर भगवान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते थे।
महाभारत काल में द्रौपदी ने भी श्रीकृष्ण के कहने पर छठ व्रत रखा था, जिसके प्रभाव से पांडवों को पुनः राज्य प्राप्त हुआ।
लंका विजय के उपरांत, अयोध्या लौटने पर भगवान राम और माता सीता ने भी रामराज्य की स्थापना के लिए यह व्रत किया था।
धार्मिक मान्यता है कि बिहार के मुंगेर स्थित बबुआ घाट पर माता सीता ने पहली बार छठ पूजा की थी। बांका जिले के मंदार पर्वत के सीताकुंड में भी उन्होंने छठ व्रत का पालन किया था।
चार दिन की सुसंरचित विधि-
छठ पर्व चार दिनों के क्रम में मनाया जाता है –
- पहला दिन – नहाय-खाय: व्रती नदी में स्नान कर सैंधा नमक, चने की दाल, कद्दू की सब्ज़ी और अरवा चावल का प्रसाद ग्रहण करते हैं।
- दूसरा दिन – खरना: पूरे दिन निराहार व्रत रखा जाता है और शाम को गुड़ की खीर, रोटी तथा केला का प्रसाद चढ़ाकर ग्रहण किया जाता है।
- तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य: षष्ठी तिथि की संध्या को व्रती जलाशय में स्नान कर अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं।
- चौथा दिन – उषा अर्घ्य: सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य दे कर व्रत का पारण किया जाता है।
अस्ताचल सूर्य की पूजा – विनम्रता का प्रतीक-
विश्व की अन्य परंपराओं से विपरीत, भारत में सूर्य के अस्त होने पर भी पूजा की जाती है। डूबते सूर्य को प्रणाम करने की यह परंपरा विनम्रता, कृतज्ञता और त्याग का प्रतीक है। यह प्रकृति के प्रति सम्मान और उसके अनवरत योगदान का भाव प्रकट करती है।
प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण का संदेश-
छठ पर्व लोगों को प्रकृति से जोड़ता है। इसमें प्रयुक्त फल, सूप, टोकरी, ठेकुआ, नदी और तालाब — सब प्रकृति की देन हैं। यह पर्व स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण और सामूहिक श्रम के महत्व को भी रेखांकित करता है।
सूर्य देव की आराधना से आरोग्यता और तेज-
सूर्य को प्रत्यक्ष देवता कहा गया है। उनकी उपासना से शरीर निरोग और बुद्धि प्रखर होती है। भविष्य पुराण में वर्णन है कि जब श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हुआ, तब उन्होंने सूर्य देव की तपस्या कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया।
सूर्य देव ने साम्ब को अपने 21 नाम बताए, जिनका स्मरण सहस्रनाम के जप के समान पुण्यदायक माना गया है।
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