सियाराम पांडेय 'शांत'
वर्ष 2003 में एक वरिष्ठ पत्रकार का विश्लेषण छपा था कि भारतीय राजनीति मात्र 300 परिवारों तक सीमित है। अंग्रेजों के दौर में भारत में 565 राजघराने थे जो लोक कल्याण की कम, अपने हितों की ज्यादा चिंता करते थे। आज भी कुछ उसी तरह का माहौल है। राजनीति के इस वंशवादी आचरण से इस देश को निजात कब मिलेगी, यह चिंतन का विषय है। भारत में परिवारवाद और राजनीति का चोली-दामन का संबंध है। राजनीतिक दल संबंधों के इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। राजनीति में परिवारवाद की आलोचना तो खूब होती है लेकिन लाभ की बहती नदी में डुबकी लगाने में कोई पीछे नहीं रहता।
मायावती हमेशा परिवारवाद की मुखर खिलाफत करती रही हैं। लेकिन बहुजन समाज पार्टी में अपने परिवार के लिए गुंजाइश बनाने में वे भी अब पीछे नहीं रहीं। बहुजन समाज पार्टी की अखिल भारतीय बैठक में अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय समन्वयक नियुक्त कर उन्होंने इस बात का संकेत दिया है कि वे भी परिवारवाद के राजनीतिक दलदल में कूद गई हैं। उन्होंने बसपा की राजनीति में परिवारवाद का नया अध्याय खोल दिया है। अब यह बांचने वालों पर निर्भर है कि वे इसे किस रूप में लेते हैं। हालांकि आकाश आनंद को पार्टी में शामिल करने के संकेत तो पिछले साल अपने 63 वें जन्मदिन के अवसर पर ही उन्होंने दे दिए थे। तब से अब तक आकाश आनंद मायावती के साथ छाया की तरह लगे रहे। जब अखिलेश यादव, मायावती का भतीजा बनने की कोशिश कर रहे थे तब भी मायावती का यह असली भतीजा उनके साथ रहा। अखिलेश की दाल तो नहीं गली, लेकिन आकाश ने न केवल बसपा की राजनीति में अपनी दाल गलाई बल्कि दुनिया को यह भी दिखाया कि असली-असली ही होता है।
मुलायम सिंह यादव अगर अपने परिवार के ज्यादातर सदस्यों को राजनीति का हिस्सा बना सकते हैं तो मायावती क्यों नहीं? सावन से भादो दूबर क्यों रहे? मायावती ने अपनी राजनीतिक परिपाटी बदली है। पार्टी के अहम पदों पर अपने भाई और भतीजों को अहमियत दी है। पार्टी में मायावती के बाद कौन का सवाल उठता रहा है। इस तरह के सवाल उठाने वालों का भी मायावती ने ऐसा करके मुंह बंद कर दिया है। मायावती का उत्तराधिकारी तो कोई अपना ही हो सकता है। मायावती ने बड़ी मुश्किल से बसपा पर कब्जा किया था। कांशीराम के परिवार और उनके अत्यंत नजदीकी नेताओं का भी विरोध झेला था। इतनी मुश्किल से हाथ लगी पार्टी को वह दूसरों के हाथ में कैसे जाने देतीं। बसपा में बड़े संगठनात्मक बदलाव की घोषणा कर उन्होंने देशभर के समन्वयकों को इस बात का संकेत दे दिया है कि पार्टी में दूसरे स्थान पर उनके भाई आनंद ही हैं। मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद के साथ पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रामजी गौतम को भी नेशनल कोआर्डिनेटर की जिम्मेदारी दी है। रामजी गौतम भी उनके भतीजे बताए जाते हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद लखनऊ में मायावती ने पहली बार अखिल भारतीय स्तर की बैठक की है। पार्टी के सभी जिम्मेदार नेताओं, पदाधिकारियों और जोनल प्रभारियों के साथ पार्टी की भविष्य की रणनीति पर चर्चा की है। उत्तर प्रदेश में इसी साल 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। इसमें कुछ सीटें भाजपा विधायकों के सांसद और मंत्री बनने की वजह से रिक्त हुई हैं। बसपा के भी कुछ विधायक सांसद बन गए हैं। इस नाते उसकी अपनी सीटें भी खाली हुई हैं। ऐसे में उन सीटों पर विजय ध्वज लहराने की उनकी अपनी चुनौती भी है। ऐसे में पदाधिकारियों में जोश भरना तो जरूरी था ही, उन्हें आकाश आनंद को नेशनल कोआर्डिनेटर बनाने का औचित्य भी बताना था। सपा से गठबंधन पर विराम के संकेत तो उन्होंने बहुत पहले ही दे दिए थे। अब यह कहकर कि बसपा अकेले उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ेगी, उन्होंने सुस्पष्ट कर दिया है कि सपा से अब उसका कोई राजनीतिक गठबंधन नहीं रहा।
अगले वर्ष तक महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, बिहार, जम्मू कश्मीर व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के चुनाव होने संभव हैं। इस बैठक में मायावती ने पार्टी पदाधिकारियों को संबंधित राज्यों में जनाधार बढ़ाने और अभी से चुनाव प्रचार में जुट जाने के निर्देश दिए हैं। दानिश अली को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया गया है, जबकि राज्यसभा में सतीश चंद्र मिश्र को पार्टी का नेता बनाया गया है।
अखिल भारतीय स्तर की इस बैठक की अपनी वजह है। बसपा अभी तक कुछ राज्यों में ही चुनाव लड़ती थी। अब उसकी योजना देशभर में चुनाव लड़ने की है। बैठक में तय हुआ कि बसपा उत्तरप्रदेश में 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उसे लग रहा है कि जब वह उत्तरप्रदेश में लोकसभा की 38 में से 10 सीटें जीत सकती है तो विधानसभा में तो इससे भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। उत्तरप्रदेश में भाईचारा संगठन के गठन के संबंध में उन्होंने फीडबैक लिया। संगठन के पुनर्गठन व जनाधार विस्तार संबंधी दिशा-निर्देश तो वे पहले भी देती रही हैं। इस बार भी उन्होंने दिया। यह कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को सक्रिय बनाए रखने का तौर-तरीका है।
भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद की बेल नेहरू खानदान से पड़ी थी। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी। यह श्रृंखला यहीं रुकेगी, कहना मुश्किल है। बाल ठाकरे ने शिवसेना में परिवारवाद को बढ़ावा दिया। लालू यादव, शरद पवार, शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला परिवार, माधवराव सिंधिया परिवार, मुलायम सिंह यादव ने भी वंशवादी राजनीति की परंपरा को आगे बढ़ाने का पुरजोर प्रयास किया। वंशवाद का आरोप तो भाजपा पर भी लगा। उसमें भी कई ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र से अपने बेटे या बेटी को टिकट दिलवाया और परिवारवादी राजनीति को संबल दिया। कांग्रेस, सपा, बसपा, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेक्युलर,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तेलुगुदेशम पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति और द्रमुक जैसे राजनीतिक दल तो पार्टी को अपनी पुश्तैनी जागीर ही मानकर चल रहे हैं। देश की मूलभूत समस्याओं का अगर समाधान नहीं हो रहा है तो इसके मूल में राजनीति में कुछ परिवारों का वर्चस्व ही प्रमुख है।