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राजनीति का शब्दकोष अलग नहीं होता
By Deshwani | Publish Date: 6/3/2017 4:04:38 PM
राजनीति का शब्दकोष अलग नहीं होता

हृदयनारायण दीक्षित

आईपीएन। राजनीति का शब्दकोष अलग नहीं होता। शब्द सामाजिक संपदा हैं। शब्द और अपशब्द का विभाजन सांस्कृतिक दृष्टिकोण से होता हैं। शब्द प्रयोग सभ्यता है और अपशब्द असभ्य आचरण के प्रतीक। संसार के सारे कार्यव्यापार का साधन है शब्द। शब्द सभ्य बनाते हैं। सभ्यता के आदर्श शब्दों से ही सामाजिक बनते हैं। शब्द विराट भौतिक जगत् के प्रतीक प्रतिनिधि होते हैं। दुनिया की हरेक वस्तु, पर्वत, नदी, वनस्पति और आकाश में झिलमिलाते तारागणों के लिए भी शब्द हैं। प्रेम, आत्मीयता, राग-विराग, समर्पण और अर्पण तर्पण भी शब्द हैं। वे हमारे भावजगत् के प्रतिनिधि हैं। शब्दों का संसार प्रत्यक्ष संसार की वाक्-प्रति है। लिखित प्रतिलिपि भी है। शब्द काया हैं और अर्थ आत्मा। हरेक शब्द का अर्थ होता है। यह शब्द के गर्भ में होता है। शब्द प्रयोग में संयम जरूरी है। वाणी संयम शब्द संधान का सौन्दर्य है। संयम का अतिक्रमण भी संयमपूर्वक ही किया जाना चाहिए। पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में शब्द प्रयोग के लिए अतिरिक्त सतर्कता को जरूरी बताया है। शब्द सद्प्रयोग सामाजिक सद्भाव की प्रतिभूति है। इनका दुरूपयोग सर्वनाश लाता है बावजूद इसके चुनावी महासमर में अभद्र शब्द प्रयोग से हाहाकार है। राजनीति के प्रति आदर का भाव लगातार घट रहा है। 
जनतंत्र खूबसूरत राजव्यवस्था है और भारत के लोगों की जीवनशैली भी। राजतंत्र में राज्य हथियाने के लिए युद्ध होते थे। भीषण रक्तपात थे। जनतंत्र में जनता अपने शासकों का चयन करती है। शासन के इच्छुक जनसमूह राजनैतिक दल बनाते हैं। आदर्श सरकार देने का अपना घोषणा पत्र देते हैं। अपने आश्वासनों और नीतियों का प्रचार करते हैं। विपक्षी दल समूह राजनैतिक दलों की नीतिगत आलोचना करते हैं। जनता सबके विचार सुनती है। अपने पक्ष में जनमत बनाना सभी दलों का अधिकार है लेकिन जनमत निर्माण आसान काम नहीं है। विचार आधारित दलों/संगठनांे द्वारा विचारनिष्ठ कार्यकर्ता तैयार किए जाते हैं। कार्यकर्ता आम जनता के बीच जनअभियान चलाते हैं। इससे लोकशिक्षण होता है। दुर्भाग्य से भारत में विचारनिष्ठ राजनैतिक शिक्षण का काम दलों की प्रथम वरीयता नहीं है। इसीलिए चुनाव अभियान के दौरान व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपों की झड़ी लग रही है। उ0प्र0 विधानसभा चुनाव के दौरान शब्दों की मर्यादा बुरी तरह से भंग हो रही है।
दलों से अच्छी कारपोरेट कम्पनियां हैं। वे भी अपने उत्पाद या माल के पक्ष में जनमत बनाती हैं। भारी भरकम विज्ञापन होते हैं। शब्दों का सौन्दर्य आनंदवर्द्धन होता है। एक साबुन कम्पनी की ओर से कहा जाता है “पहले इस्तेमाल करें। फिर विश्वास करें।” एक वस्त्र निर्माता कम्पनी का संदेश है, “फील द डिफरेंस” - विशिष्टता का अनुभव कीजिए। ताकत की दवा बेचने वाली एक कम्पनी का कहना है, “जियो जी भर के जियो। ताकत का कैप्सूल बेचने वाली एक कम्पनी का संदेश है, “आज हो या कल, इनज्वाय करें हर पल।” एक पान मसाला का विज्ञापन है “हमेशा स्वाद के शिखर पर।” जनमत बनाने के लिए सुन्दर वाक्यों का प्रयोग पुरानी परिपाटी है। लेकिन राजनैतिक दलतंत्र प्रायः हिंसक आक्रामकता का ही प्रयोग करता है। समझ में नहीं आता कि दलतंत्र का शब्दकोष छोटा क्यों है? सवाल ढेर सारे हैं। राजनैतिक डिक्शनरी में सुंदर शब्दों का टोटा क्यों है? क्या आरोप लगाने के लिए सुंदर और शालीन वाक्य प्रयोग असंभव हैं? आखिरकार दल परस्पर शत्रुवत व्यवहार क्यों करते हैं? राजनेता परस्पर अपशब्दों के ही प्रयोग क्यों करते हैं? 
चुनाव के दौरान अपने पक्ष में जनमत बनाना ही मुख्य लक्ष्य होता है। विरोधी को अपशब्द कहने से जनमत नहीं बनता। राजनेता सत्ता के दावेदार होते हैं। सत्ता के लिए दावा करने वालों को सभ्य और शालीन ही होना चाहिए। मुझे अपना उदाहरण देना जरूरी जान पड़ता है। मैं स्वयं इसी विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी था। मैंने सभी भाषणों में अपने विरोधी प्रत्याशियों को अपने पुत्र जैसा बताया। वे पुत्र जैसे हैं भी। वे युवा हैं मैं उनकी तुलना में वयोवृद्ध। मैंने आगे जोड़ा कि मैं उन्हें परिजन मानता हूं। मेरे ऐसे कथनों को सराहा गया। एक विरोधी प्रत्याशी के समर्थकों ने मुझे शारीरिक दृष्टि से कमजोर बताया। मैं जवाब नहीं देना चाहता था लेकिन समर्थकों ने दबाव बनाया। मैंने कहा विरोधी मित्रों की बात में दम है। अब मैं मर्दाना कमजोरी की दवा खाया करूंगा। इस बयान ने काफी मनोरंजन किया। आरोप प्रत्यारोप और स्पष्टीकरण भी सरल, तरल और प्रीतिकर हो सकते हैं। लेकिन तमाम राजनेता विरोधी को अनाप शनाप बककर ताली पिटवाने के अभ्यस्त हैं। इससे लोकतंत्र कमजोर होता है और चुनावी माहौल भी कटुतापूर्ण हो जाता है। 
आखिरकार लोकमत का संस्कार हो कैसे? लोकमत के निर्माता कथित स्टार प्रचारक वाणी संयम नहीं करते। सभ्यता और संस्कृति का विकास शब्द मर्यादा में ही होता रहा है। उपनिषदों की रचना उत्तरवैदिक काल में हुई है। उपनिषद् के एक मंत्र में प्रार्थना है “मेरा मन वाणी का अनुसरण करे। वाणी मन का अनसरण करे। मैं सत्य कहूंगा। ऋत बोलूंगा। हे देव! मेरी रक्षा करो।” मन और वाणी की एकात्मकता जरूरी है। मन ही संकल्प का केन्द्र है। वाणी संयम के लिए मन संकल्प जरूरी है। ऋषि सत्य बोलने के पहले मन और वाणी का संयम चाहते हैं। सत्य लोकमंगल का संवाहक है। अप्रिय सत्य से लोक मंगल में बाधा आती है। अप्रिय सत्य से बचने की देशना पुरानी है। ऐसा बोलना जरूरी ही हो तो उसे प्रिय बनाकर बोलने के तमाम विकल्प हैं। सत्य को बहुधा कड़ुवा कहा जाता है पर ऐसा सच नहीं है। सत्य हमेशा मधुमय ही होता है। हम मधुमय वाक् सम्पदा का सदुपयोग नहीं करते। दोष सत्य पर मढ़ते हैं। जो सत् है वही चेतन है और वही आनंद भी है। सत चित् आनंद ही सच्चिदानंद है। 
शब्द प्रयोग का सर्वोत्तम कौशल मंत्र कहा जाता है। मंत्र शब्द है। सभी शब्द मंत्र नहीं होते लेकिन सभी मंत्र शब्द कौशल का ही चमत्कार हैं। सारा काव्य शब्द संयोजन है। गीत शब्दों की सुकुमार काया में उगते हैं। शब्द दर्शनीय हैं। इससे भी ज्यादा मननीय। मननीय शब्दों के प्रयोगकर्ता माननीय हो जाते हैं। शब्द नमस्कारो के योग्य हैं। शब्द को अपशब्द बनाने वाले हीनगं्रथि के रोगी होते हैं। उनके अन्तःकरण में शब्द कमल नहीं खिलते हैं। उनका चित्त शब्द संपदा की मधुगंध से नहीं हहराता। उनका शब्द कोष रूग्ण होता है। उनके चित्त में मधुरस नहीं होता संभवतः। वे बोलते हैं तो ध्वनि तरंगों में कड़ुवाहट होती है। शब्द को अपशब्द बनाना रूग्ण चित्त के बिना असंभव। श्लीलता स्वस्थ चित्त का पराग है और अश्लीलता रूग्ण चित्त का वमन। श्लीलता संस्कृति का प्रसाद है। अश्लीलता हमारी बीमार अभिव्यक्ति। राजनीति में सक्रिय आत्मीय मित्र भारत के मन की अपेक्षा पर ध्यान दें। सार्थक संवाद करें। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप से बचे। चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव बनाए। 
(उपर्युक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)
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