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आज की उम्मीद आने वाले कल की सच्चाई है
By Deshwani | Publish Date: 6/3/2017 3:41:15 PM
आज की उम्मीद आने वाले कल की सच्चाई है

प्रदीप कुमार सिंह 

आईपीएन। प्रसिद्ध स्पेस वैज्ञानिक एम. अन्नादुरई के अनुसार मेरा जन्म तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले के एक छोटे-से गांव में 1958 में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा मैंने अपने गांव के स्कूल में ही पाई। बचपन में सातवीं क्लास तक मेरे घर में बिजली नहीं थी। हम पांच भाई-बहन थे और मेरे पिता महीने में मात्र 120 रूपये कमाते थे, लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत तथा ईमानदारी पर ही उम्मीद की। बचपन से पिता ही मेरे सबसे प्रभावी गुरू रहे हैं। वह स्कूल में मेरे शिक्षक तो थे ही, घर में भी यही सिखाते थे कि रोज अपने जीवन में थोड़ा सुधार करो, कुछ नया जोड़ो। चंद्रयान के बाद उन्होंने मुझे पूछा था कि आगे क्या योजना है, फिर मंगलयान के बाद भी उन्होंने यही सवाल किया। किसी भी नवाचार की शुरूआत एक सामान्य विचार से होती है, पर उसे सावधानी से विकसित करने की जरूरत होती है। अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि आत्मविश्वास और नवोन्मेषी दृष्टि सफलता के लिए बहुत जरूरी है। हमें एम. अन्नादुरई जैसे महान स्पेस वैज्ञानिक से जीवन के हर पल में कुछ नया जोड़ने की कला सीखनी चाहिए। 

धरती को हरा-भरा बनाने के लिए उत्तराखंड के चमोली में बेटी की विदाई के समय मायके में फलदार वृक्ष लगाने की एक अध्यापक कल्याण सिंह ‘मैती’ की पहल अब आंदोलन का रूप ले चुकी है। यह अनूठा विचार देश के 18 राज्यों के साथ ही दुनिया के छह देशों में फैल चुका है। इस आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह ‘मैती’ ने बताया कि इस बारे में गंभीर विचार करने के बाद उनको लगा कि बेटी के विवाह के समय जब मायके से विदाई होती है तो वह पल पूरे परिवार और खासकर मां के लिए अत्यधिक भावुक होता है। मैती ने इसी भावुक पल को भुनाने का काम शुरू किया और बेटी के विवाह के समय दुल्हन की माता को एक फलदार वृक्ष आंगन में लगाने के लिए थमा दिया जिसे उसकी मां ने बेटी के ससुराल जाने के बाद उसी की तरह पाला। चमोली के असंख्य गांवों में उनकी प्रेरणा से आज करीब तीन लाख फलदार वृक्ष लहलहा रहे हैं। कल्याण सिंह ‘मैती’ ने लोगों में धरती को हरा-भरा रखने की उम्मीद जगाने के लिए ही जन्म लिया है। 

उत्तराखंड के टिहरी जिले के हेरालगांव में अत्यधिक गरीब परिवार में जन्में वीरेन्द्र सिंह रावत है जिन्होंने ग्रीन स्कूल का ऐसा असाधारण विचार विकसित किया जिसके बल पर उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली है वह अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भी ग्रीन स्कूल के मकसद पर व्याख्यान दे चुके हैं। उन्होंने कहा कि ग्रीन स्कूल के संचालन का खर्च अन्य स्कूलों की तुलना में 80 प्रतिशत कम आता है। उनके देशभर में 120 से ज्यादा स्कूल चल रहे हैं। यूएई में उनके पांच ग्रीन स्कूल हैं। किसी ने क्या खूब कहा है - कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरकर नैया पार नहीं होती।  आंसमा में भी छेद हो सकता है बस पूरे विश्वास तथा उम्मीद तथा विश्वास के साथ एक पत्थर तो उछालो यारो। 

लखनऊ के लोकबंधु अस्पताल में प्रदेश की पहली पंचकर्म यूनिट शुरू हो गई है। इसके लिए एनएचएम से करीब 12.50 लाख रूपये का बजट आवंटित किया गया था। अस्पताल की मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाॅ. अमिता यादव ने बताया कि ओपीडी में रोजाना 35 से 40 मरीजों का पंचकर्म से इलाज किया जा रहा है, जबकि ओपीडी पहुंचने वाले मरीजों की संख्या 70 से 80 के करीब है। जानिए, क्या होती है प्रक्रिया? पंचकर्म में वमन, विलेचन, निरोग भस्ति, स्थापन भस्ति, शिरो विलेचन किया जाता है। वमन में छोटी आंत की सफाई, विलेचन में बड़ी आंत की सफाई की जाती है। इससे शरीर से जहरीले तत्व बाहर निकल जाते हैं। पंचकर्म से शरीर को साम्यावस्था में बनाए रखना, दूषित तत्वों से मुक्ति दिलाने, शरीर को स्फूर्ति और शक्ति देने में मदद मिलती है। प्राकृतिक चिकित्सा की दिशा में यह एक अच्छी पहल है। देश के सभी अस्पतालों में इस तरह की सुविधा सर्व सुलभ होनी चाहिए। पूरी उम्मीद तथा विश्वास के साथ कहे कि कुदरत ने हमें संसार में हमेशा स्वस्थ रहने का वरदान दिया है। 

गैर सरकारी संगठन प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की एनुअल स्टेटस आॅफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण स्कूलों की सच्चाई सामने आई है। उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में लाख कोशिशों के बाद भी पढ़ाई का स्तर सुधरने का नाम नहीं ले रहा है। सालाना 19 हजार करोड़ रूपये सर्व शिक्षा अभियान में खर्च करने के बाद भी उत्तर प्रदेश में पढ़ाई का स्तर नहीं सुधर पा रहा है। इसी का नतीजा है कि कक्षा आठ के 74.5 प्रतिशत बच्चे गुणा-भाग नहीं कर पाते। सरकारी स्कूलों में सिर्फ 2.7 प्रतिशत बच्चों के लिए ही कंम्यूटर उपलब्ध है। इन स्कूलों में 8वीं के बच्चे भी हिन्दी के अक्षर नहीं पहचान पाते हैं। इन स्कूलों में शैक्षिक तथा उत्साहवर्धक वातावरण न होने के कारण नाम लिखाने के बाद भी बच्चे स्कूल नहीं जाते। एक चैथाई लड़कियां 16 साल के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। ग्रामीण सरकारी स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। स्कूल से 5 प्रतिशत से अधिक बच्चे अब भी दूर हैं। यह समाचार अत्यन्त ही दुखदायी स्थिति है। 

यह केवल देश के एक प्रदेश की सच्चाई नहीं है वरन् पूरे देश में शिक्षा की स्थिति इसी प्रकार दयनीय है। बच्चे किसी देश का कल का भविष्य होते हैं। सरकार, टीचर्स तथा परिवारों की उदासीनता से लाखों बच्चों का जीवन अन्धकारमय बन रहा है। शिक्षा के अभाव में ये बच्चे कल को रोजगार से वंचित हो जायेंगे। बेरोजगार युवा पीढ़ी अपराध के राह में आसानी से कदम बढ़ा देती है। विकसित समाज में आधुनिक शिक्षा बहुत आवश्यक है तभी हमारे देश के बच्चे वैश्विक युग में अन्य देशों के बच्चों के सामने टिक पायेंगे। यह जवाबदेही शिक्षाविदों, विद्यालय संचालकों तथा शिक्षकों को स्वेच्छा से स्वीकार करनी चाहिए। आज के ये छोटे-छोटे बच्चों में ही 21वीं सदी का उज्जवल भविष्य छिपा है। स्कूल की चारदीवारी के अंदर कल का भविष्य टीचर्स के संकल्प के बलबुते आकार लेता ळें

अशांत कश्मीर घाटी के श्रीनगर में तीन महीने की लम्बी सर्दियों की छुट्टियों के बाद खुले स्कूलों में जाते छात्र यह सन्देश दे रहे है कि आओ सारे मिलकर अब स्कूल की ओर चले। उज्जवल भविष्य के सपनों से भरे इन बच्चों का स्कूल में हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए। बच्चों को उपद्रवी तथा आतंकवादी तत्वों से हर हालत में सुरक्षित बनाने का दायित्व हर विचारशील नागरिक को स्वीकारना चाहिए। युद्ध के विचार सबसे पहले मानव मस्तिष्क में पैदा होते हैं। इसलिए मनुष्य के मस्तिष्क में शान्ति के विचार रोपने होंगे। शान्ति के विचार मनुष्य के मस्तिष्क में रोपने की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन है। मानव जीवन में विचार का सर्वाधिक महत्व है। कहा जाता है कि संसार में समस्त सैन्य शक्ति से बढ़कर विचार की शक्ति होती है। बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है - सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित मनुष्य की ओर से की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करना। 

आगरा की गीता माहोर और उसकी दो बेटियों पर उसके पति ने तेजाब डाला था। एक बच्ची की मौत हो गई। दूसरी बच्ची जिंदा है। बच्ची के साथ जीना बहुत मुश्किल था। एक गैर सरकारी संगठन छांव फाउंडेशन को इस महिला को देखकर शीरोज हैंगआउट कैफे का विचार आया। एनजीओ से मदद मिली और 10 सितम्बर 2014 को शीरोज कैफे सामने आया। इसमें आज 20 के करीब तेजाब हमले की शिकार महिलाएं काम करती हैं। आगरा, लखनऊ और उदयपुर में चल रहे इन तीनों कैफे के अभियान को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर नारी शक्ति पुरस्कार 2016 से सम्मानित किया जाएगा। राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी 8 मार्च 2017 को यह पुरस्कार देंगे। शीरोज कैफे का यह अनुकरणीय तथा अनूठा प्रयास लाखों पीड़ित बहिनों तथा बेटियों में स्वाभिमान तथा सम्मान के साथ जीने की उम्मीद जगा रही है। 

सुश्री आरती संपत कहती है कि मैं अपने बचपन में बड़े-बड़े ख्वाब देखा करती थी, सोचती थी कि पढ़-लिखकर परिवार का नाम रोशन करूंगी। लेकिन थोड़ी बड़ी हुई, तो हमेशा कमजोरी महसूस होती। हड्डियों के टूटने का एहसास होता। माता-पिता मुझे डाॅक्टर के पास ले गए। उन्होंने मेरे शरीर की जांच की और मुझे अविलंब किसी न्यूरोलाॅजिस्ट से दिखाने के लिए कहा। हमें पता नहीं था कि उसके बाद मेरी दुनिया एकदम से बदल जाएंगी। न्यूरोलाॅजिस्ट ने मुझे देखा और कुछ जांच के बाद पता चला कि मुझ मस्क्यूलर डेस्ट्राॅफी है। इसमें शरीर की मांसपेशियां कमजोर पड़ जाती है और शरीर लगातार कमजोर हो जाता है। मेरी बीमारी के बारे में जानकर मेरे परिवार वालों पर तो दुखों का पहाड़ टूट ही पड़ा था। मेरी मां ने मुझे ब्यूटीशियन तथा पेटिंग की क्लासों में डाल दिया। मैं न केवल पेटिंग में रूचि लेने लगी, बल्कि पेटिंग ने मुझे जीवन की विविधताओं से परिचित कराया। जिंदगी में पहली बार मुझे रंगों का महत्व समझ में आया। शारीरिक रूप से अशक्त होने के बावजूद अपनी पेटिंग्स के जरिये में असंख्य लोगों को प्रेरित करती हूं।

बचपन के दर्द ने मेहरशाला करीम अली को विश्व का महान अभिनेता बना दिया। आॅस्कर पुरस्कार विजेता मेहरशाला करीम अली के अनुसार उनका जन्म कैलिफोर्निया के आॅकलैण्ड में हुआ। जब वह एक छोटे बालक थे। पिता के पास कमाई का कोई खास जरिया नहीं था। इस कारण से परिवार में झगड़े बढ़ने लगे। अंततः एक दिन पिता घर छोड़कर चले गये। तब उनकी मां ने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए दूसरी शादी कर ली। दूसरे पिता सख्त स्वभाव के थे। मेरी उनसे कभी नहीं पटी। मेहरशाला करीम को लगता था कि मम्मी-पापा उन्हें नहीं समझते हैं। वह अनिद्रा का शिकार हो गये। वह खुद को अकेला महसूस करने लगे, इसलिए मन की बातें कागज पर दर्ज करने लगे। ऐसा करने पर उनके दिल को बड़ा सुकून मिलता था। धीरे-धीरे लेखन, अभिनय व संगीत की ओर उनका रूझान बढ़ने लगा। वर्ष 1996 में उन्होंने मास कम्यूनिकेशन में डिग्री हासिल की। वह कालेज के दिनों से ही स्टेज शो करने लगे थे। वर्ष 2008 में उनकी पहली फिल्म डेविड फिंचर रिलीज हुई। दर्शकों ने उसे काफी पसंद किया। इसके बाद शोहरत व बुलंदियां कदम चूमने लगीं। पिछले दिनों मूनलाइट फिल्म में बेहतरीन अदाकारी के लिए उन्हें आॅस्कर से नवाजा गया। आॅस्कर पुरस्कार विजेता मेहरशाला का उम्मीदों तथा विश्वास से भरा जीवन यह संदेश देता है कि जीना इसी का नाम है।

(उपुर्यक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)

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