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आ गया प्रकृति पर्व सरहुल, तैयारियों में जुटा आदिवासी समाज
By Deshwani | Publish Date: 28/3/2017 4:22:27 PM
आ गया प्रकृति पर्व सरहुल, तैयारियों में जुटा आदिवासी समाज

प्रतीकात्मक फोटोः सरहुल पर्व मनाते आदिवासी समाज के लोग

रांची, (हि.स)। चैत का महीना आ गया है, सखुआ के पेड़ों पर फूल खिलने लगे हैं। फूलों की महक ने सारे वातावरण को सुरभित कर दिया है। यह मनमोहक दृश्य प्रकृति पर्व सरहुल के आने की दस्तक है। इसी के साथ आदिवासी समुदाय ने सरहुल की तैयारियां शुरू कर दी है। सभी अपने-अपने सरना स्थल की सफाई में लगे हैं। 

वहीं सरना झंडों से पूरा शहर पट गया है। सरहुल को लेकर बरियातू तेतर टोली में सरना स्थल को सजाया गया है। सरना स्थल के पास आकर्षक लाइटिंग की गयी है और सरना झंडों से स्थल को पाट दिया गया है। बरियातू के अलावा हिनू बस्ती, कटहर कोचा, सीरमटोली और लोवाडीह में भी सरहुल पर्व की तैयारियां जोरों पर है। प्रकृति पर्व सरहुल 29 मार्च से शुरु होगा। 29 मार्च को सरना धर्म बहनें और पुरुष उपवास पर रहेंगे। वह नजदीक के नदी, तालाब से केकड़ा मछली पकड़ने का रस्म निभाएंगे। मार्च को मुख्य सरना स्थल हातमा में घड़े में जल रखाई की रस्म होगी। सरहुल पूजा के दिन उस घड़े को देखकर मुख्य पाहन जगलाल इस वर्ष बारिश की भविष्यवाणी करेंगे। 30 मार्च को मुख्य पूजा भी हातमा में होगी। इसके अतिरिक्त रांची आसपास के सभी सरना स्थलों में सरहुल की पूजा पूरे विधि-विधान से स्थानीय पाहन करेंगे। सुबह में पूजा-अर्चना के बाद दोपहर एक बजे के बाद विभिन्न सरना स्थलों सरहुल पूजा समितियों द्वारा विशाल शोभायात्रा निकाली जाएगी, जो विभिन्न मार्ग होते हुए मेन रोड पहुंचेगी और क्लब रोड स्थित सिरम टोली सरना स्थल में जाकर इसका समापन होगा। 

शोभायात्रा की तैयारियां चल रहीं हैं। 31 मार्च को फूलखोंसी के साथ सरहुल महोत्सव का समापन होगा। गौरतलब है कि सरहुल चैत महीने के पांचवें दिन मनाया जाता है| इसकी तैयारी सप्ताह भर पहले ही शुरू हो जाती है। प्रत्येक आदिवासी परिवार से हंडिया बनाने के लिए चावल जमा किया जाता है। पर्व के पूर्व संध्या से पर्व के अंत तक पाहन (पुजारी) उपवास करता है। एक सप्ताह पहले सूचना के अनुसार पर्व के पूर्व संध्या पर गांव की 'डाड़ी' साफ की जाती है। उसमें ताजा डालियों को डाल दिया जाता है, जिससे पक्षी और जानवर भी वहां से जल न पी सकें। पर्व के दिन सुबह मुर्गा के बांगने के पहले ही पुजार दो नये घड़ों में 'डाड़ी' का विशुद्ध जल भर कर चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर गांव की रक्षक आत्मा, सरना बुढ़िया के चरणों में रखता है। उस सुबह गांव के नवयुवक चूजे पकड़ने जाते हैं। चेंगनों के रंग आत्माओं के अनुसार अलग-अलग होते है। किसी-किसी गांव में पाहन और पूजार ही पूजा के इन चूजों को जमा करने के लिए प्रत्येक परिवार में जाते हैं| दोपहर के समय पाहन और पुजार गांव की डाड़ी झरिया अथवा निकट के नदी में स्नान करते हैं। किसी–किसी गांव में पाहन और उसकी नदी में स्नान करते हैं। वहीं कही-कही पहान और उसकी पत्नी को एक साथ बैठाया जाता है। गांव का मुखिया अथवा सरपंच उन पर सिंदुर लगाता है। उसके बाद उन पर कई घड़े डाले जाते है। 

उस समय वहां उपस्थित लोग " बरसों-बरसों" कहकर चिल्लाते हैं। जो धरती और आकाश के बीच शादी का प्रतीक माना जाता है । उसके बाद गांव से सरना का जूलूस निकला जाता है| सरना पहुंचकर पूजा-स्थल की सफाई की जाती है। पुजार चेंगनों के पैर धोकर उन पर सिंदुर लगाता है और पाहन को देता है। पाहन सरना बुढ़िया के प्रतीक पत्थर के सामने बैठकर चेंगनो को डेन के ढेर से चुगाता है। उस समय गांव के बुजुर्ग वर्ग अन्न के दाने उन पर फेंकते हुए आत्माओं के लिए प्रार्थनाएं करते हैं कि वे गांव की उचित रखवाली करें। उसके बाद पाहन चेंगनों का सिर काट कर कुछ खून चावल के ढेर पर और कुछ सूप पर ठपकाता है। बाद में उन चेंगनों को पकाया जाता है। इसके पके हुए सिर को सिर्फ पाहन ही खा सकता है। चेंगनों के कलेजे, यकृत आदि आत्माओं में नाम पर चढ़ाये जाते हैं। बाकी मांस चावल के साथ पकाकर उपस्थित सब लोगों के बीच प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है। इस दौरान भगवान के नाम पर अलग से सफेद चिंगने की बलि चढ़ाई जाती है। जो पूर्णता और पवित्रता का प्रतीक होता है। 

अन्य आत्माओं के नाम पर अलग–अलग रंगों के चिंगने चढ़ाये जाते हैं। पाहन भगवान से प्रार्थना करते हुए कहता है कि हे पिता आप ऊपर हैं और हम नीचे। आप की आंखे हैं, हम अज्ञानी हैं, चाहें अनजाने अथवा अज्ञानतावश हमने आत्माओं को नाराज किया है, तो उन्हें संभाल कर रखिए, हमारे गुनाहों को नजरअंदाज कर दीजिए। प्रसाद भोज समाप्त होने के बाद पाहन और पंचगण सखूआ गाछ को सिंदूर लगाता है और अरवा धागा से तीन बार लपेटता है, जो अभीष्ट देवात्मा को शादी के वस्त्र देने का प्रतीक है। कई जगहों में पहान सखूआ फूल, चावल और पवित्र जल प्रत्येक घर के एक प्रतिनिधि को बांटता है। उसके बाद सब घर लौटते हैं। इसके बाद पाहन को एक भी व्यक्ति के कंधे पर बैठाकर हर्सोल्लास के साथ गांव लाया जाता है| उसके पैरों को जमीन पर नहीं पड़ने दिया जाता है, क्योंकि वह अभी ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। घर पहुंचने पर पाहन की पत्नी उसका पैर धोती है और बदले में सखूआ फूल, चावल और सरना का आशीष जल प्राप्त करती है। वह फूलों को घर के अंदर, गोहार घर में और छत में लगा कर रख देती है। इसके बाद पाहन के सिर पर कई घड़े पानी डालते जाते है इस दौरान भी लोग की ओर से 'बरसों, बरसो' चिल्लाया जाता है। दूसरे दिन पाहन प्रत्येक परिवार में जाकर सखूआ फूल सूप से चावल और घड़े से सरना जल वितरित करता है। 

इस दौरान गांव की महिलाएं अपने-अपने आंगन में एक सूप लिए खड़ी रहती हैं। सूप में दो दोने होते हैं। एक सरना जल ग्रहण करने के लिए खाली होता है और दूसरे में पाहन को देने के लिए हंडिया होता है। सरना जल को घर में और बीज के लिए रखे गए धन पर छिड़का जाता है। इस प्रकार पहान हरेक घर को आशीष देते हुए कहता है, "आपके कोठे और भंडार धन से भरपूर हो, जिससे पाहन का नाम उजागर हो। इस दौराना प्रत्येक परिवार में पाहन को नहलाया जाता है। वह भी अपने हिस्से का हंडिया प्रत्येक परिवार में पीना नहीं भूलता है। नहलाया जाना और प्रचुर मात्रा में हंडिया पीना सूर्य और धरती को फलप्रद होने के लिए प्रवृत करने का प्रतीक है। 

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