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झारखंड
ऐतिहासिक रथ यात्रा 25 जून को
By Deshwani | Publish Date: 2/6/2017 12:04:32 PM
ऐतिहासिक रथ यात्रा 25 जून को

रांची,  (हि.स.)। झारखंड में रथयात्रा की ऐतिहासिक और समृद्ध परंपरा रही है। वैसे तो पूरे झारखंड में ही रथयात्रा उत्साह से मनाई जाती है। मगर इसमें रांची और हजारीबाग के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वर्ष ऐतिहासिक रथ यात्रा 25 जून को निकाली जायेगी। इस दिन भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलराम मुख्य मंदिर से मौसीबाड़ी जायेंगे। यहां रथयात्रा से जुड़े अनुष्ठानों का आरंभ ज्येष्ठ पूर्णिमा से ही प्रारंभ होगा। 

जब तीनों विग्रहों को गर्भगृह से बाहर स्नान मंडप में लाकर महाऔषधि मिश्रित जल से स्नान कराया जाता है। इसके बाद इन्हें पुन: गर्भगृह में स्थापित कर गर्भगृह के पट आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रथमा तक बंद कर दिए जाते हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से अमावस्या तक तीनों विग्रह गर्भगृह में एकांतवास में रहते हैं। इस अवधि में किसी को भी भगवान के दर्शन नहीं होंगे। आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रथमा को विग्रहों का नेत्रदान और मंगल आरती होती है। आषाढ़ द्वितीय को तीनों श्रीविग्रह रथ पर सवार हो मौसी बाड़ी के लिए प्रस्थान करते हैं। मौसी बाड़ी में आठ दिनों तक विश्राम के पश्चात चार जुलाई को नौवें दिन अर्थात एकादशी के दिन मौसी बाड़ी से इन विग्रहों की पुन: वापसी होगी, जिसे रथयात्रा कहते हैं। इन नौ दिनों तक जगन्नाथपुर में मेला का आयोजन भी किया जायेगा।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को आयोजित होने वाला यह पर्व रांची में 17 वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मनाया जाता रहा है। इसका शुभारम्भ राजा ठाकुर ऐनी नाथ शाहदेव द्वारा किया गया था। रथयात्रा रांची धुर्वा स्थित जगन्नाथ मंदिर परिसर में लगता है। प्रतिवर्ष लगने वाला यह मेला झारखंड के लोगों की धार्मिक आस्था और विश्वास का प्रतीक है। यह मेला झारखंड की ऐतिहासिक धरोहर है। प्रत्येक वर्ष लगने के कारण यह इस क्षेत्र का एक बड़ा त्योहार हो गया है। इस मेले के लोग जहां धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का निर्वहन करने आते हैं। वहीं यह मेला वास्तव में उस आदिम भावना की रक्षा का प्रतीक है, जो जगन्नाथपुर से ही नहीं, जगन्नाथपुरी से भी प्राचीन है। यह रथ मेला मानवता के पावन मिलन का गौरवशाली उदाहरण है। स्नान यात्रा ऐतिहासिक जगन्नाथ मेला के 15 दिन पूर्व मंदिर में जेष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान स्नान के बाद एकांतवास में चले जाते हैं। 15 दिनों की इस अवधि में भगवान का शृंगार किया जाता है। इस दौरान भक्तों को भगवान के दर्शन नहीं होते हैं। सिर्फ कलाकारों को ही प्रतिमाओं के पास जाने की इजाजत होती है। मंत्रोच्चारण के साथ भगवान के सभी विग्रहों की स्नान यात्रा धूमधाम से मनायी जाती है। इसमें भारी संख्या मे भक्त हिस्सा लेते हैं। स्वामी जगन्नाथ, बलराम और बहन सुभद्रा की प्रतिमाओं को बौरफुल, हल्दी, गोड़ावाच, अश्वगंधा और अन्य औषधियों के मिश्रित जल से महास्नान कराया जाता है। इसके बाद सभी विग्रहों को गर्भगृह में स्थापित कर दिया जाता है। स्नान के बाद 108 मंगल आरती गायी जाती है। इस समय पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता है। स्नान के 15 दिन बाद आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथयात्रा निकाली जाती है। 
भगवान की यात्रा हजारों कंठ के जयघोष के बीच भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और माता सुभद्रा की मूर्तियां पुजारियों के कंधे पर चढ़कर मंदिर के गर्भगृह से बाहर आती है एवं पहाड़ी के निचले हिस्से से सुसज्जित काष्ठ की रथ पर आरूढ़ की जाती है। रथ पर मंदिर के पुजारी और शाहदेव परिवार के वंशज एवं गणमान्य लोग सवार होते हैं। सवार सभी अपने शरीर पर सिर्फ धोती पहने रहते हैं, ऊपरी हिस्सा खाली रहता है। विशालकाय भारी-भरकम चक्का तक काष्ठ से बना यह सुसज्जित धर्म रथ लम्बे रस्से से बंधा होता है। इस रस्से को लोग बड़ी भक्ति भावना के साथ खींचते हैं। इसके साथ ही गगनभेदी जयघोष के साथ भगवान नौ दिनों को मेहमानी के लिए मौसीबाड़ी (गुंडिचा मंदिर) की पवित्र राह पर चल पड़ते हैं। उस समय लाखों श्रद्धालु नर-नारियों का हुजूम यात्रा मार्ग के दोनों ओर उमड़ पड़ता है। जिसे संभालने के लिए सुरक्षा में लगाये गये पुलिसकर्मियों सहित विभिन्न स्वयंसेवी संस्था के स्वयंसेवकों को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। यह त्रिमूर्ति हर वर्ष इसी तिथि को उमड़ते हुए ज्वार के समान मौसीबाड़ी के लिए प्रस्थान करती है और एकादशी वैसे ही एक समारोह में तनिक धीमे-धीमे उतरते भाटा के समान पुराने मंदिर में लौट आती है। भगवान का यह अनादि रथ 450 वर्षों से यूं ही अपना सफर तय कर रहा है। यहां दर्शनार्थियों में विभिन्न वर्गों का अनुपात बदल गया है, लेकिन आदिवासीजनों के उल्लास एवं मेले के साथ उनकी आत्मीयता में कोई कमी नहीं आती। यह मेला वास्तव में उस आदिम भावना की रक्षा का प्रतीक है, जो जगन्नाथपुर से ही नहीं, जगन्नाथपुरी से भी प्राचीन है। यह रथ मेला मानवता के पावन मिलन का गौरवशाली उदाहरण है। इस दिन भगवान के सभी विग्रहों को रथ पर सवार कर मौसीबाड़ी ले जाया जाता है। 9 दिनों तक मौसीबाड़ी में भगवान विश्राम करने बाद वापस मुख्य मंदिर लौटते हैं। इस दिन घुरती मेला का आयोजन किया जाता है। रथयात्रा (आषाढ़ पक्ष द्वितीया) के एक-दो दिन पूर्व से ही मेला में शामिल होने के लिए लोगों का हुजूम मंदिर के लिए कूच करने लगता है। इस भव्य मेले में लाखों की संख्या में आदिवासी, गैर आदिवासी स्त्री-पुरुषों, वृद्ध-वृद्धा और बच्चे दूर-दराज से रंग-बिरंगे नवपरिधानों में जगन्नाथ स्वामी के दर्शन व पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। यह परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। 
 
 
 
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