लखनऊ, (हि.स.)। मेथी की फसल शरद ऋतु में की जाती है। मेथी की खेती मुख्यतः सब्जियों, दानों (मसाला) एवं कुछ स्थानां पर चारों के लिये किया जाता है। इसकी वानस्पतिक वृद्धि के लिए लम्बे ठण्डे मौसम, आर्द्र जलवायु तथा कम तापमान उपयुक्त रहता है। फसल पकने के समय ठण्डा एवं शुष्क मौसम उपज के लिये लाभप्रद होता है। कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि मेथी पैदा करने से खेत की उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है। यह पाले के आक्रमण को भी सहन कर लेती ।
मैदानी इलाकों में फसल की बुवाई के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक का समय एवं पर्वतीय क्षेत्रां में मार्च-अप्रैल सर्वोत्तम रहता है। देरी से बुवाई करने पर उपज कम प्राप्त होती है। दोमट या बलुई दोमट मृदा, जिसमें कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो एवं उचित जल निकास क्षमता हो इसकी सफल खेती के लिये उत्तम मानी जाती है। खेत साफ स्वच्छ एवं भुरभुरा तैयार होना चाहिए अन्यथा अंकुरण प्रभावित होता है।
इसकी किस्मों में लाम सेलेक्शन-1, गुजरात मेथी-2, आर.एम.टी.-1, राजेन्द्र क्रांति, हिसार सोनाली, कोयंबटूर-1 आदि प्रमुख उन्नतशील किस्में हैं। इसकी 20-25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगता है। बीज को बोने के पूर्व फंफूदनाशी दवा (कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज) से उपचारित किया जाना चाहिए। बीज का उपचार राइजोबियम मेलोलेटी कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से करने से भी लाभ मिलता है।
कृषि विशेषज्ञ डा. एस.के सिंह बताते हैं कि मेथी के सूखे दानों का उपयोग मसाले के रूप में, सब्जियां के छौंकने व बघारने, अचारों में एवं दवाइयां के निर्माण में किया जाता है। इसकी भाजी अत्यंत गुणकारी है, जिसकी तुलना काड लीवर आयल से की जाती है। इसके बीज में डायोस्जेनिंग नामक स्टेरायड के कारण फार्मास्यूटिकल उद्योग में इसकी मांग रहती है। इसका उपयोग विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने में किया जाता है।