वाराणसी, (हि.स.)। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी धनतेरस पर्व पर मंगलवार को रजत सिंहासन पर विराजमान भगवान धन्वन्तरी के दरबार में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ा।
सुड़िया-बुलानाला स्थित धनवन्तरि निवास में स्थित आरोग्य सुख के दाता भगवान धनवन्तरि के दरबार का औषधीय श्रृंगार देख कतारबद्ध श्रद्धालु निहाल होते रहे। भगवान के ड्योढ़ी के बारे में माना जाता है कि धनतेरस पर हाजिरी मात्र से भक्तों को रोग-व्याधि से मुक्ति के साथ सुख-समृद्धि व यश-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। तीन सौ बरस से ज्यादा प्राचीन भगवान धनवंतरि के मंदिर में गर्भगृह में विराजमान रजत सिंहासन पर सुशोभित अष्ठधातु की प्रतिमा भगवान धनवन्तरि का श्रृंगार दोपहर 12 बजे से शुरू हुआ। पांच वैदिक ब्राम्हणों एवं राजवैद्य पं. शिवकुमार शास्त्री के आचार्यत्व में भगवान का पंचामृत स्नान कराने के पश्चात उनका औषधीय श्रृंगार किया गया।
इसके बाद विभिन्न प्रकार के भोग लगाकर महाआरती की गयी और फिर आम श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ मंदिर का कपाट खोल दिया गया। पूरे मंदिर को विदेशी फूलों से सजाया गया। माथे पर स्वर्ण मुकुट और देह पर पीतांबरी धारण किए हुए देव विग्रह की निराली छवि देख निहाल होते रहे।
गौरतलब है कि काशी में भगवान धनवन्तरी का एकमात्र मंदिर सुड़िया-बुलानाला स्थित धनवन्तरि निवास में है। जिसका कपाट वर्ष में एक बार धनतेरस पर खुलता है। जो पांच दिन भइया दूज तक दर्शन-पूजन के निमित्त खुला रहता है।
धनवन्तरि निवास के पं. समीर कुमार शास्त्री ने बताया कि देवासुर संग्राम में जब समुद्र मंथन हुआ था, उस समय कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी तिथि पर भगवान धनवन्तरि अमृत कलश लिए मध्याह्न बेला में प्रकट हुए थे। उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, जोक व अमृत कलश शोभायमान रहा। आयुर्वेद में जोक का प्रयोग रक्त शोधन, चक्र का उपयोग चीर-फाड़, शंख विशेष प्रभाव के लिए और अमृत कलश को सभी औषधियों का प्रतीक माना जाता है।