जगदलपुर, (हि.स.)। राज्य स्थापना के 17 साल बाद प्रदेश का पशुधन विकास विभाग बस्तर के लोकप्रिय असील मुर्गे के उचित संवर्धन के लिए कोई प्रोजेक्ट प्रारंभ नहीं कर पाया है। विभागीय भर्राशाही के कारण ही असील की 13 उप प्रजातियां को पहचान नहीं मिल पाई। संभाग के कई जिलों में जिला प्रशासन कड़कनाथ को बढ़ाने की बात कर रहे हैं जबकि यह प्रजाति झाबुआ की है। इधर पांच साल से कुक्कुट के किसी प्रोजेक्ट के लिए राशि भी उपलब्ध नहीं करायी जा रही है। फिलहाल कुक्कुट पालन केन्द्र में पाले गए कुछ असील मुर्गों को प्रदर्शनियों में रख विभाग खानापूर्ति कर रही है।
ज्ञात हो कि तीन साल पहले संवर्धन केन्द्र में रखे 300 असील मुर्गे- मुर्गियों को बर्ड फ्लू के नाम पर मार दिया गया था। बस्तर और आंध्रप्रदेश के सीमावर्ती इलाके में ग्रामीण असील का पालन करते हैं। यह मांसल के साथ ऊंचा कद काठी वाला होता है। बस्तर में इसका सबसे अधिक उपयोग मुर्गा लड़ाई में होता है। उपरोक्त कार्यों में असील की मांग को देखते हुए ही ग्रामीण इसे पालना पसंद करते हैं। बताया गया कि असील की मांग भिलाई, रायपुर, नागपुर, अमरावती जैसे नगरों में है। इसलिए बस्तर से ही प्रति माह करीब तीन सौ क्विंटल असील का परिवहन किया जा रहा है। बावजूद इसके पशुधन विकास विभाग बस्तर में असील संवर्धन के प्रति पूरी तरह से उदासीन है और राज्य स्थापना के 16 साल बाद भी छग से एक भी ब्रीड तैयार नहीं किया जा सका है।
कड़कनाथ मूलत: झाबूआ क्षेत्र की प्रजाति है। लेकिन लंबे समय से कड़कनाथ को विभाग ही बस्तर का कड़कनाथ कह काफी प्रचारित करती आ रही है। कुछ लोग क्रासबीट कड़कनाथ को ओरिजनल कड़कनाथ की ऊंची दर पर बेच रहे हैं। अपनी अलग पहचान के कारण बाजार में कड़कनाथ की मांग है और लोग इसे 600 रुपए किग्रा की दर से खरीद रहे हैं।
बस्तर के कुक्कुट पालन केन्द्र के प्रभारी डॉ जहीरूद्दीन बताते हैं कि वर्ष 2013 के बाद असील संवर्धन के लिए विभाग से कोई फंड नहीं मिला है इसलिए यह महत्वपूर्ण कार्य ठप है। इस संदर्भ में विभाग को कई बार पत्र लिखा जा चुका है।
बस्तर में असील की 13 उप प्रजातियां है जिसमें पटेला, नूरी, याकूत, कव्वाल, जावा, जिक्कर, चित्ता, कागर, रेजा, धम्मर, साबिया, पटेडा और टिक्कर हैं। यहां के ग्रामीण इन्हें चोखा, जोंधरी, चितरी, सकनी, पंडरी, काबरी, लाली, डेंगी, कालवा, लाखड़ी, तेन्दू व फासरा आदि नाम से पहचानते हैं। खासकर मुर्गा लड़ाई के समय इनके नाम पर ही दांव लगाए जाते हैं। वहीं आदिवासियों के विविध अनुष्ठानों में बलि के समय पर मांग भी असील मुर्गों की होती है।