लखनऊ, (हि.स.)। सुख और दुख मन की भावना होती है। सुख बांटने से बढ़ता हौर दुख बांटने से घटता है। रामकृष्ण मठ, निरालानगर में आयोजित सप्ताहिक गीता प्रवचन में शुक्रवार को मठ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी महाराज ने कहा कि गीता का पावन पवित्र ग्रंथ हमारे लिये आदर्श है जो यह बताता है बिना फल की आशा किये अपने कर्तव्य पथ पर कैसे चलना चाहिये। उन्होंने कहा कि गीता का अनुसरण करने वाले को आनन्द और समाधान मिलता
गीता के 16 वें अध्याय की चर्चा करते हुये स्वामी मुक्तिनाथानन्द महाराज ने कहा कि भगवान ने अर्जुन को कहा कि मनुष्य के भीतर दो प्रकार के विपरीत स्वभाव रहता है पहला ईश्वरीय कृपा और दूसरा आसुरी शक्तियां। ईश्वरीय कृपा में सुख, शान्ति, है जिसके माध्यम से परमात्मा की प्राप्ति सम्भव है जब कि आसुरी स्वभाव वाले काम, क्रोध, लोभ, दम्भ अहंकार आदि के जरियें दुख सागर में पतित हो जाते हैं। अतः जीवन में हमेंशा शास्त्रविधि पूर्वक कर्म करने चाहिये ताकि हमारें भीतर भगवान की कृपा व देवी सम्पद की वृद्वि हो एवं आसुरी स्वभाव नियंत्रण मे रहें।
उन्होंने कहा कि 17 वें अध्याय में अर्जुन प्रश्न किये हैं कि जो व्यक्ति शास्त्रविधि न मानते हुये अपने-अपने स्वभाव अनुसार श्रद्धा सहकार भजन पूजन करतें हैं ऐसे मनुष्यों की निष्ठा कौन सी होती है? सात्विकी, (देवी) अथवा राजसी-तामसी (आसुरी)? इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने पहले बताया कि जो व्यक्ति अज्ञतावशतः शास्त्र न जानते हुए अपने स्वभाव अनुसार कर्म करते हैं उनके परिणाम उसके स्वभाव के अनुरूप होता है। स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी महाराज ने कहा कि मनुष्य के स्वभाव तीन प्रकार के होते है-सात्विकी, राजसी एवं तामसी अर्थात उनके निष्ठा अपने-अपने स्वभाव के अनुसार बनते हैं।
17 वें अध्याय के पंचम एवं छठे श्लोक में श्री भगवान कहते है कि जो व्यक्ति जानते हुये भी विधिपूर्वक शास्त्रविधि का परित्याग करके दम्भ और अहंकार के साथ भोगपदार्थ, आसक्ति और हठ से युक्त होतें हुये सब के भीतर विराजमान परमात्मा को कष्ट देते हुये अनर्थक शरीर को दुःख देते हैं उनको आसुर निश्चय वाले समझो एवं उनके परिणाम उसी अनुसार दुःख पूर्ण होगा।