नई दिल्ली, (हि.स.)। देश के संजातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक पारसी इस्लाम के बढ़ते प्रसार के चलते 7वीं सदी में भारत आये थे। यह बात अब अनुवांशिक तौर पर किए गए वैज्ञानिक विश्लेषण से प्रमाणित हो गई है। पत्रिका जेनोम बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के परिणाम 7 वीं शताब्दी में पारसी आबादी के ऐतिहासिक रूप से दर्ज पलायन और भारतीय उपमहाद्वीप की आबादी और सांस्कृतिक परिवेश 'दूध में चीनी की तरह' उनके मिलने के समझौते के पूरी तरह अनुरूप है।
इसके अलावा व्यापक संदर्भ में यह परिणाम इस्लामी विजय के कारण पश्चिम एशिया में एक प्रमुख जनसांख्यिकीय बदलाव को भी दर्शाते हैं। यह शोध सेलुलर और आणविक जीवविज्ञान, हैदराबाद के डॉ कुमारस्वामी थंगराज के नेतृत्व में भारत, एस्टोनिया, ब्रिटेन और पाकिस्तान के वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम ने किया।
डॉ कुमारस्वामी थंगराज ने बताया, ‘‘हमने भारतीय उपमहाद्वीप की पारसी आबादी के मूल का पता लगाने के लिए मिटोकोन्ड्रियल, वाई क्रोमोजोमल और ऑटोसॉमल डीएनए मार्करों का व्यापक विश्लेषण किया है और यह पाया है कि 1200 साल पहले उन्होंने भारतीय जनसंख्या के साथ आनुवंशिक रूप से प्रवेश किया है। इससे पता चलता है कि इसी दौरान पहले जोजोस्ट्रियन भारत पहुंचे।’’
पारसी दुनिया के सबसे छोटे धार्मिक समुदायों में से एक हैं। शोध के मुताबिक जनसंख्या संरचना और इस समूह के जनसांख्यिकीय इतिहास को विस्तार से समझने के लिए भारतीय और पाकिस्तानी पारसी आबादी का विश्लेषण किया गया। इसके अतिरिक्त शुरुआती समय में पारसियों का निवास बने गुजरात के संजन से प्राचीन पारसी डीएनए नमूनों के मिटोकोडायड्रियल डीएनए पॉलीमोर्फ़िज्म का भी अध्ययन किया गया।
शोध में पाया गया है कि आज की आबादी में पारसी उनके दक्षिण एशियाई पड़ोसियों की बजाय ईरानी और काकेशस आबादी के आनुवंशिक रूप से निकटतम हैं। वे वर्तमान में ईरानी लोगों के साथ सबसे अधिक हप्लोटाइप (एक गुणसूत्र पर स्थित आनुवंशिक निर्धारकों का एक समूह) साझा करते हैं और हम अनुमान लगाते हैं कि भारतीय आबादी में पारसियों का मिश्रण 1200 साल पहले हुआ था।