नई दिल्ली। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में आज भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी 12 आरोपियों पर आपराधिक साजिश रखने का आरोप तय कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने यह आरोप तय किए। 19 अप्रैल को इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाया था। लखनऊ बैंच द्वारा आरोप तय किए जाने से पहले ही सभी आरोपियों को सीबीआई की विशेष अदालत ने जमानत भी दे दी। कोर्ट ने यह जमानत 20 हजार के निजी मुचलके पर दी है। लिहाजा इलाहाबाद कोर्ट द्वारा आरोप तय किए जाने के बाद भी अब इनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकेगी।
आज जिन 12 आरोपियों को कोर्ट ने जमानत दी है उनमें उत्तर प्रदेश के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, विष्णु हरि डालमिया, राम विलास वेदांती, धर्मदास महंत, महंत नृत्यगोपाल दास, चंपत राय, सतीश प्रधान का नाम शामिल है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में सभी आरोपियों को तरफ से उनपर लगे आरोपों को खारिज करने के लिए भी अपील दायर की गई है, जिसे खारिज कर दिया गया है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इससे जुड़े मामला सुनकर फैसला लेने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच को दो वर्ष का समय दिया है। इसके अलावा कोर्ट ने अपने आदेश में फिलहाल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सीएम कल्याण सिंह जो कि वर्तमान में राजस्थान के राज्यपाल हैं, पर मामला न चलाने को कहा है। कोर्ट का कहना है कि संविधान के मुताबिक उनपर यह मामला उनके राज्यपाल के पद से हटने के बाद ही चलाया जा सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करते हुए मामले की रोजाना सुनवाई करनी जरूरी होगी। इस पूरी सुनवाई के दौरान इस मामले से संबंघित जज का ट्रांसफर भी नहीं किया जा सकेगा। इसके अलावा सीबीआई को सुनिश्चित करना होगा कि अभियोजन पक्ष का कम से कम एक गवाह रोजाना मौजूद हो ताकि कोर्ट की कार्यवाही न रुक सके।
इस मामले में कोर्ट ने जिन 12 नेताओं पर मामला चलाने का लेकर आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया था वह नाम उस वक्त सभी की जुबान पर थे। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही इन सभी नेताओं पर मामला चलाने का निर्णय मामले के 25 वर्षों के बाद लिया, लेकिन इस मामले की जांच के लिए बनाए गए लिब्राहन आयोग ने उस वक्त करीब 68 लोगों को दोषी ठहराते हुए उनपर मामला चलाने की सिफारिश तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार से की थी, उनमें यह 12 नाम भी शामिल थे।
16 दिसंबर 1992 को इस आयोग का गठन हुआ था। आयोग को अपनी रिपोर्ट तीन महीने के भीतर पेश करनी थी, लेकिन इसका कार्यकाल लगातार 48 बार बढ़ाया गया। करीब 17 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद अंततः आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी। लिब्राहन आयोग की इस रिपोर्ट को 24 नवंबर 2009 को संसद में पेश किया गया था। इसमें बाबरी विध्वंस को सुनियोजित साजिश करार देते हुए आरएसएस और कुछ अन्य संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाए गए थे। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री की भूमिका पर भी आयोग ने सवाल उठाए थे।
इस मामले की जांच के लिए बनाया गया एक सदस्यीय लिब्राहन आयोग देश में अब तक का सबसे लंबा चलने वाला जांच आयोग है। इस पर सरकार को करीब आठ करोड़ रुपये का खर्च वहन करना पड़ा था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यूपी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। आयोग ने अगस्त 2005 में अपने आखिरी गवाह कल्याण सिंह से सुनवाई पूरी की थी। इस आयोग के समक्ष उनके अलावा पीवी नरसिम्हा राव, पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और मुलायम सिंह यादव के अलावा कई नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों ने पेश होकर अपने बयान दर्ज कराए थे।