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धार्मिक रीतियों की विविधता को दर्शाता है हरेला पर्व
By Deshwani | Publish Date: 16/7/2017 11:29:55 AM
धार्मिक रीतियों की विविधता को दर्शाता है हरेला पर्व

 लखनऊ, (हि.स.)। उत्तर प्रदेश का कभी हिस्सा रहा देव भूमि कहा जाने वाला उत्तराखण्ड भले ही आज अलग राज्य हो, लेकिन दोनों प्रदेशों की संस्कृति, तीज-त्योहारों और यहां रहने वाले लोगों ने आज भी एक-दूसरे को बेहद अटूट रिश्ते से जोड़ रखा है। दोनों राज्यों में रहने वाले ये लोग जहां एक-दूसरे की खुशियों में शरीक होते आये हैं, वहीं अपने-अपने लोक पर्वों को भी हर्षोल्लास से मनाते हैं। कुछ इसी तर्ज पर रविवार को उत्तर प्रदेश में रहने वाले उत्तराखण्ड मूल के लोगों ने अपना ‘‘हरेला’’ पर्व मनाया। 

दिलचस्प बात है कि उत्तर प्रदेश समेत देश के अन्य राज्यों के लोगों के लिए सावन माह की शुरूआत भले ही पिछले हफ्ते से हो गयी हो, लेकिन उत्तराखण्ड के लोग हरेला से सावन की शुरूआत मानते हैं| इसलिए उनके सावन माह की शुरूआत आज से हुई। एक ही माह की अलग-अलग तिथियों में शुरुआत भी देश की धार्मिक रीतियों की विविधता को दर्शाता है।
खास बात है कि कोई भी त्योहार साल में जहां एक बार आता है, वहीं हरेला के साथ ऐसा नहीं है। देवभूमि से जुड़े कुछ लोगों के यहां ये पर्व चैत्र, श्रावण और आषाढ़ के शुरू होने पर यानी वर्ष में तीन बार मनाया जाता है, तो कहीं एक बार मनाने की परम्परा है। इनमें सबसे अधिक महत्व सावन के पहले दिन पड़ने वाले हरेले पर्व का होता है, क्योंकि ये सावन की हरियाली का प्रतीक माना जाता है। 
ज्योतिषाचार्य गणेश चन्द्र उप्रेती ने हिन्दुस्थान समाचार को बताया कि हरेला शब्द की उत्पत्ति हरियाली से हुई है। हरेले के त्योहार से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या गांवों के मन्दिर के अन्दर सात प्रकार के अन्न जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट को टोकरी में रोपित किया है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं. उसके बाद फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया पांच-छह बार अपनाई जाती है।
इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और रोजाना सुबह पानी से सींचा जाता है। नवें दिन इनकी एक स्थानीय वृक्ष की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानी कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है. इसके बाद घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरां, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और आशीर्वाद स्वरुप यह पंक्तियां, ’‘जी रये, जागि रये...धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये...सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो..दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये’’ बोली जाती हैं। आज उत्तराखण्ड मूल के परिवारों में यह शब्द बार-बार सुनाई देते रहे। 
ज्योतिषाचार्य उप्रेती ने हिन्दुस्थान समाचार को बताया कि इनका अर्थ है कि हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान, आकाश के समान उदार बनो, सूर्य के समान तेजस्वी, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपां और इतने दीर्घायु हो कि दंतहीन होने पर चावल भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए लाठी का उपयोग करना पड़े, तब भी तुम जीवन का आनन्द ले सको। बड़े बुजुर्गों की ये दुआएं छोटों के जीवन में खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक बनती हैं। 
हरेले का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि अगर परिवार का कोई सदस्य त्योहार के दिन घर में मौजूद न हो, तो उसके लिए बकायदा हरेला रखा जाता है और जब भी वह घर पहुंचता है तो बड़े-बजुर्ग उसे हरेले से पूजते हैं। वहीं कई परिवार इसे अपने घर के दूरदराज के सदस्यों को आज भी कूरियर यानी अन्य लोगों द्वारा भी पहुंचाते हैं। एक अन्य विशेष बात है कि जब तक किसी परिवार का विभाजन नहीं होता है, वहां एक ही जगह हरेला बोया जाता है, चाहे परिवार के सदस्य अलग-अलग जगहों पर रहते हों। परिवार के विभाजन के बाद ही सदस्य अलग हरेला बो और काट सकते हैं। इस तरह से आज भी इस पर्व ने कई परिवारों को एकजुट रखा हुआ है। इसके साथ ही इस दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
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