डा. दिलीप अग्निहोत्री
आईपीएन। विधानसभा चुनाव का प्रचार पूरी रंगत में है। विभिन्न पार्टियों के नेता एवं दूसरे पर हमले में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। यह मानना होगा कि सर्वाधिक हमले भारतीय जनता पार्टी पर हो रहे है। इसके दो कारण है। एक यह केन्द्र में उसकी सरकार है विराधियों की दिलचस्पी उनके ढाई वर्ष के शासन पर है। ऐसे सवाल पूंछे जा रहे हंै, जैसे चुनाव उत्तर प्रदेश विधानसभा के नही लोकसभा का हो रहा है। भाजपा पर हमले का दूसरा कारण यह है कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक महौल पूरी तरह बदल गया है। चैदह वर्षां से सपा और बसपा के बीच मुख्य मुकबला चल रहा था। एक दूसरे पर हमले करने से ही इनका काम चल जाता था। इसी का लाभ उठाकर सपा और बसपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही थी। इस दौरान भाजपा मुख्य मुकाबले से बाहर थी। अतः चुनाव के दौरान उसके ज्यादा अहमियत नही मिलती थी। लेकिन चैदह वर्षाें का यह महौल दो हजार में बदल गया था। लोकसभा चुनाव में भाजपा को यह एक तरफा सफलता मिली थी। ढाई वर्ष पहले बदला यह महौल आज कायम है यह बात सपा कांग्रेस गठबंधन और बसपा के प्रचार से भी साबित हो रही है। यदि भाजपा मुख्य मुकाबले से बाहर हो तो यह तय था कि सपा व कांग्रेस का गठबंधन नही होता। क्योकि तब बसपा के विरोध से ही सपा का काम चल जाता। लेकिन अब ऐसी बात नही रही। सपा को लगा कि भाजपा का मुकाबला अकेले नही किया जा सकता। इसलिए कुछ वोटो के विभाजन को राकने हेतु गठबंधन किया गया। बसपा का भी हमला भाजपा पर रहा।
यह कहने का मतलब यह कि इस बार चुनाव प्रचार में सर्वाधिक हमले भाजपा व केन्द्र सरकार पर हो रहे है। सपा, कांग्रेस व बसपा सभी इस मामले में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने पर जोर लगा रही है। चुनाव उत्तर प्रदेश का है लेकिन सवाल केवल केन्द्र से हो रहे हे। खासतौर पर नोटबंदी, खातों में 15 लाख, कालाधन आदि विषय राहुल गांधी अखिलेश यादव व मायावती को बहुत पसंद आ रहे है।
भाजपा पर इस चैतरफा हमलों के बीच उत्तर प्रदेश में स्नातक क्षेत्र के तीन विधानसभा परिषद क्षेत्र के चुनाव हुए। यह सही है कि मतदाताओ की संख्या व मात्र तीन क्षेत्रों के जीत से बड़े निष्कर्ष निकाले जा सकते है। लेकिन कुछ बातों को नजरअदांज भी नही किया जा सकता है एक तो प्रत्येक क्षेत्र में अनेक जिले शामिल होते है। ऐसे में प्रदेश के बड़े हिस्से तक इन निर्वाचन क्षेत्रों का विस्तार था। दूसरे स्नातक मतदाताओ में सभी वर्ग के लोग शामिल होते है। अब स्नातक करके रोजगार प्राप्त करना भी सामान्य बात नही रही। ऐसे में इसमे बड़ी संख्या में बेरोजगार मतदाता भी होगे। सामान्य आर्थिक स्थिति के मतदाता भी होगे। इसके अलावा विधान परिषद चुनाव के दौरान भाजपा केन्द्र पर आरोपो की बौछार चल रही थी। इसके बवाजूद इन तीनों सीटो पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। इस हिसाब से कहा जा सकता है कि यह चुनाव छोटे, लेकिन इसके संदेश बड़े है। खासतौर पर राहुल गांधी अखिलेश यादव, मायावती को यह संदेश समझने चाहिए।
ये तीनों काले धन का मुद्दा उठाकर नरेन्द्र मोदी को घेरना चाहते है। मायवती ने कहा कि मोदी को कालेधन पर बात करने का हक नही है। जैसे यह मायावती के पास है राहुल तो ढाई सालांे से शूट-बूट की सरकार में उलझे है। अखिलेश बार-बार सवाल करते है कि बताइये कहा है अच्छे दिन। मोदी के हमले की धुन में वह यह भी भूल जाते है कि पांच वर्ष से उनकी सरकार यहां चल रही है किफर पंूछना पड़ा रहा है कि अच्छे दिन कहां है। माना ढाई वर्ष में मोदी सरकार अच्छे दिन नही ला सकी। पांच में क्या अखिलेश सरकार भी अच्छे दिन क्यो नही ला सकी। जवाब दे तो पांच वर्ष सरकार चलाने वाला ज्यादा है।
यह नेता पन्द्रह लाख रुपये खाते में न पहुंचने पर परेशान दिखायी देते है। ऐसा लगता है, जिनके लिए 15 लाख रुपये की कोई कीमत नही, वही इसके लिए बेकरार है जनसामान्य को मोदी सरकार की नीयत पर विश्वास है यह विधान परिषद चुनाव से तय हुआ।
राहुल, अखिलेश व मायावती की बातों से लगता है कि जैसे वह नोटबंदी पर ही चुनाव लड़ना चाहते है। नोटबंदी के पहले दिन से इनकी जो परेशानी शुरु हुई आज तक कम नही हुई। लेकिन विधान परिषद चुनाव दिखा दिया कि इस मामले में भी जन सामान्य को मोदी सरकार की नीयत पर सन्देह नही है। जाहिर है विधान परिषद के चुनाव छोटे थे, लेकिन इनके संदेश बहुत बड़े है।