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दिल्ली में बच्चों के दाखिले की समस्या पर बनी फिल्म है 'हिन्दी मीडियम'
By Deshwani | Publish Date: 19/5/2017 3:45:46 PM
दिल्ली में बच्चों के दाखिले की समस्या पर बनी फिल्म है 'हिन्दी मीडियम'

 मुंबई, (हि.स.) । बच्चों को अच्छे स्कूलों में एडमीशन एक ऐसी समस्या बन चुका है, जिससे हर वर्ग के माता-पिता को सामना करना पड़ता है। इसी गंभीर समस्या को लेकर निर्देशक साकेत चौधरी ने हिंदी मीडियम बनाई है। 

कहानी दिल्ली की है, जहां राज बत्रा (इरफान) अपनी पत्नी मीता (सबा कमर) और छोटी बेटी के साथ रहते हैं और अपने कपड़े के कारोबार से खुश हैं । सवाल आता है उसकी बेटी के स्कूल में एडमीशन का। राज बहुत पढ़ा-लिखा नहीं है। अंग्रेजी को लेकर तो बिल्कुल पैदल है। उसकी पत्नी चाहती है कि उनकी बेटी दिल्ली के टॉप अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई करे। सारी कोशिशें नाकाम होती हैं। फिर भी वे हार नहीं मानते गरीब बच्चो के कोटे से दाखिले के लिए वे दोनों अपने आलीशान बंगले को छोड़कर गरीब लोगों की बस्ती में आकर रहने लगते हैं, ताकि वे खुद को गरीब साबित कर सकें। उनकी बेटी को एडमीशन तो मिल जाता है, लेकिन इसी बस्ती से उनको जिंदगी और दुनियादारी की पढ़ाई का वो सबक मिलता है, जो आंखे खोलने वाला होता है। 
फिल्म एक बेहद संवेदनशील मुद्दे के मर्म को छूने की कोशिश करती है। मुद्दा गंभीर है, लेकिन मनोरंजन के लिहाज से इसे हल्के फुल्के कॉमेडी के साथ आगे बढ़ाया जाता है। फिर भी ये फिल्म अपनी बात कहने में कामयाब हो जाती है। इस कामयाबी का बहुत बड़ा श्रेय इरफान जैसे कद्दावर कलाकार को जाता है, जो सहजता से अपना असर छोड़ने के फन में माहिर हैं। पहली बार हिन्दुस्तानी परदे पर तशरीफ लाई पाकिस्तानी अदाकारा सबा कमर खूबसूरती के अलावा आत्मविश्वास के साथ असरदार परफॉरमेंस देती हैं। इन दोनों के अलावा अगर कोई तीसरा किरदार सबसे ज्यादा असर छोड़ता है, तो वो दीपक डोबरियाल का है। कंगना की फिल्म तनु वेडस मनु सीरिज के बाद दीपक एक बार फिर अपने रंग में नजर आए और अपने किरदार को बेहतरीन बना गए। ये किरदार फिल्म से बाहर आने के बाद याद रह जाता है, यही दीपक की सबसे बड़ी कामयाबी है। 
ऐसा नहीं है कि फिल्म में सब कुछ अच्छा हो। साकेत चौधरी का निर्देशन भी कमजोर ही रहा है। उन्होंने मजबूत विषय उठाया। इरफान जैसा मजबूत कलाकार उनको मिला। वे इसी से खुश हो गए और फिल्म को छोड़ दिया। स्क्रीनप्ले जलेबी की तरह घूमता है। लंबे-लंबे अतिनाटकीय सीन फिल्म की गंभीरता को भंग करते हैं। क्लाइमैक्स में इरफान को जबरदस्ती हीरो बनाने की कोशिश हास्यास्दपद रही। इतना मजबूत विषय होने के बाद किसी और को हीरो बनाने की कोई जरुरत नहीं थी। ये साकेत चौधरी के निर्देशन की कमजोरी है। 
कमजोरियों के बावजूद ये फिल्म मनोरंजन के पल जुटाती है। एक गंभीर समस्या का एहसास कराती है और कुछ दिलचस्प किरदारों की अदायगी से दिल खुश होता है। इन सबको ध्यान में रखकर फिल्म को एक बार जाकर देखने में कोई बुराई नहीं। फिल्म बहुत लम्बा सफर नहीं तय करेगी, लेकिन जो देखेगा, उसे खुशी ज्यादा मायूसी कम होगी। 
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