फिल्म समीक्षा : रेटिंग 4 स्टार
मुंबई, (हिस)। डायरेक्टर अश्विनी अयैर तिवारी की फिल्म बरेली की बर्फी का कथानक पहली नजर में त्रिकोणीय प्रेमकथाओं की उन फिल्मों की कड़ी बनता है, जिस पर बालीवुड में फिल्में बनती रहती हैं, लेकिन अश्विनी तिवारी ने जिस अंदाज में इस कहानी को परदे पर उतारा है उससे ये फिल्म दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब होगी।
कहानी बर्फी की है, जिसके तीन प्रमुख पात्र हैं। पहला पात्र बिट्टी मिश्रा (कीर्ति सेनन) का है, जो अपने माता-पिता की इकलौती संतान है और बिजली विभाग में काम करती है। आदत से बिट्टी बिंदास है। बिट्टी के घरवाले परेशान हैं, क्योंकि उनकी बेटी की शादी नहीं हो पा रही। इस कहानी का दूसरा पात्र हैं चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना), जो शहर में प्रिंटिंग प्रेस का कारोबार करता है और इस गम में जी रहा है कि उसकी गर्लफ्रेंड की शादी कहीं और हो गई है। इस कहानी के तीसरे पात्र हैं प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) जो कहने के लिए चिराग के दोस्त हैं और आदत से दब्बू किस्म के व्यक्ति हैं।
कहानी यूं बनती है कि अपनी प्रेमिका के दूर हो जाने के गम में चिराग बरेली की बर्फी टाइटल से एक छोटा सा नावेल लिखता है और अपनी प्रिटिंग प्रेस में छापता है, लेकिन लेखक में विद्रोही का नाम डालता है। ये नावेल बिट्टी के हाथ लग जाता है, जिसे लगता है कि ये उसकी जिंदगी पर लिखा गया है। उसे विद्रोही से मिलना है। इस मकसद से वो चिराग से मिलती है, तो चिराग उस पर फिदा हो जाता है।
बिट्टी की जिद पूरी करने के लिए चिराग किसी तरह से विद्रोही को ढूंढकर लाता है, ताकि विद्रोही से मिलने के बाद बिट्टी के दिल तक पंहुचने के लिए उसका रास्ता साफ हो जाए। चिराग के अरमानों के चिराग उस वक्त बुझने लगते हैं, जब विद्रोही की सादगी भरा अंदाज बिट्टी और उसके मां-पिता का दिल जीत लेता है।
यहां से चिराग जितनी कोशिश विद्रोही को बिट्टी से दूर करने के लिए करता है, वे दोनों उतना ही करीब आते जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब बिट्टी के साथ विद्रोही की सगाई तय हो जाती है और चिराग को लगता है कि उसकी मुहब्बत हार गई। कहानी यहां से एक दिलचस्प क्लाइमेक्स की तरफ मुड़ जाती है।
आम तौर पर त्रिकोणीय प्रेमकथाएं एक परिपाटी पर चलती हैं, लेकिन अश्विनी ने अपनी फिल्म की कहानी को हकीकत के धरातल पर बनाए रखा, इसे आम दर्शकों की संवेदनाओं से जोड़े रखने का अश्विनी अयैर तिवारी का प्रयास पूरी तरह से सफल रहा। यही वजह है कि फिल्म पहले सीन से दर्शकों के साथ जुड़ती चली जाती है और अंत तक इसके सभी किरदार दर्शकों के दिल के साथ जुड़े रहते हैं।
फिल्म के हास्य प्रसंग, चुलबुले संवाद और दिलचस्प सीनों की जुगल बंदी के साथ जावेद अख्तर का सूत्रधार का अंदाज इस फिल्म को शानदार बनाने में योगदान देते हैं। इसमें फिल्म के सभी कलाकारों का शानदार अभिनय सोने में सुहागा की तरह काम करता है। कीर्ति सेनन ने अपनी भूमिका को बेहतरीन बनाया, तो आयुष्मान खुराना पीछे नहीं रहे और राजकुमार राव एक बार फिर दिल जीतने का काम करते हैं। बिट्टी के माता-पिता के रोल में सीमा भार्गव और पंकज त्रिपाठी का सहज अभिनय भी शानदार है।
फिल्म का संगीत अच्छा है और फिल्म को संगीतमय बनाने में कामयाब रहता है। फिल्म का कैमरा एक छोटे से शहर के हर एंगल को परदे पर लाने में सफल रहा है। एडीटिंग अच्छी है।
फिल्म की कमी ये है कि यूपी के किसी शहर में आज भी कोई पिता अपनी बेटी के सिगरेट या शराब पीने वाली बात को सामान्य नहीं ले सकता। ये थोड़ा अटपटा लगता है। कहानी कई जगह फिल्मी भी हो जाती है। क्लाइमेक्स भी थोड़ा उधेड़बुन वाला रहा। कमजोरियों के बाद भी बरेली की बर्फी में रिश्तों की मिठास का एहसास है, जो दर्शकों के दिलों को मिठास से भर देगा। इसे देखने वाले दर्शक इस फिल्म को देखकर खुशी खुशी लौटेंगे। बाक्स आफिस पर ये फिल्म सफलता पाने की काबिलियत रखती है।