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फिल्म समीक्षा : ट्यूब लाइट...ये तो फ्यूज लाइट है
By Deshwani | Publish Date: 23/6/2017 4:15:47 PM
फिल्म समीक्षा : ट्यूब लाइट...ये तो फ्यूज लाइट है

 रेटिंग-2 स्टार 

मुंबई, (हिस)। एक था टाइगर और बजरंगी भाईजान के बाद सलमान खान के साथ निर्देशक कबीर खान की तीसरी फिल्म ट्यूब लाइट घोषित रूप से हालीवुड की फिल्म लिटिल ब्वाय पर बनाई गई है। कहानी से लेकर निर्देशन और अभिनय के मामलों में बेहद कमजोर नजर आई ट्यूब लाइट उम्मीदों की कसौटी पर निराश करती है। 
कहानी का बैकड्राप 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध है और इस कहानी को उत्तराखंड में चीन से लगी सीमा पर बसे एक छोटे से कस्बे में केंद्रित किया गया है। कहानी दो भाइयों लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) और उनके छोटे भाई भरत (सोहेल खान) की है, जिनके माता-पिता बचपन में चल बसे और दोनों एक दूसरे के साथ जिंदगी में आगे बढ़े। 
दोनों का एक दूसरे के प्रति बहुत गहरा लगाव है। बस्ती में रहने वाले बन्ने चाचा (ओमपुरी) ने दोनों की परवरिश की है, जो गांधीवादी विचारों के प्रबल समर्थक हैं। जब भारत-चीन के बीच युद्ध शुरू होता है, तो भरत सेना में भर्ती होकर मोर्चे पर लड़ने चला जाता है और लक्ष्मण अकेला रह जाता है। इस बीच बस्ती में गोवे (मातिन) अपनी मां (जु जू) के साथ रहने आया है। 
बस्ती के कुछ लोग उन मां-बेटे को चीनी मानकर उनके रहने का विरोध करना चाहते हैं, लेकिन लक्ष्मण की उस बच्चे के साथ दोस्ती हो जाती है। लक्ष्मण उस वक्त टूट जाता है, जब जंग से भरत की मौत की खबर आती है। बाद में ये खबर झूठी साबित होती है और लक्ष्मण को उसकी खुशियां वापस मिल जाती हैं। 
फिल्म की कहानी का विचार अच्छा था, लेकिन कबीर खान, जो खुद ही फिल्म के लेखक हैं, इसे न्यायसंगत नहीं बना पाए। एक इमोशनल सब्जेक्ट पर बनने वाली फिल्म अगर दिलों की संवेदनाओं को न छू पाए, तो किसी फिल्म के लिए इससे बड़ी कमजोरी कोई दूसरी नहीं होती। ट्यूब लाइट के सारे इमोशनल बनावटी साबित होते हैं, जो मिथक और टोटकों में फंसकर रह जाते हैं। लक्ष्मण को कभी बस्ती में आया जादूगर (शाहरुख खान का मेहमान रोल) अपने यकीन से कांच की बोतल को हिलाने का करतब दिखाता है, तो कभी बन्ने चाचा उसे गांधीवादी विचारों पर अमल करके अपने यकीन को मजबूत करने की नसीहत देते हैं। यकीन का ये खेल इसलिए असरदार नहीं रहा क्योंकि कहानी और सीन बुरी तरह से बिखरे हुए हैं, जिनमें संतुलन का अभाव है। 
लक्ष्मण को पहले मंदबुद्धि जैसा दिखाया गया और बाद में भोला। कबीर खान इन दोनों के फर्क को नहीं समझ पाए। बेहद छोटी कहानी शुरुआत में ही लड़खड़ा जाती है और दिशाहीन हो जाती है। लंबे-लंबे सीनों के साथ कहानी का ठहराव चीन-भारत युद्ध की घोषणा से कम होता है, लेकिन खत्म नहीं होता। छोटे बच्चे गुवे और उसकी मां के साथ भी लक्ष्मण के रिश्तों की संवेदनाएं भी न्यायसंगत नहीं लगतीं। 
सलमान फिल्म के हीरो हैं, लेकिन उनके किरदार में हीरोइज्म ही नहीं है। वे जब अपने यकीन का शो करते हुए चट्टान को हिलाने का करतब दिखाते हैं, तो पता चलता है कि संयोगवश उसी वक्त भूकंप आता है। ये संयोग लक्ष्मण के हीरोइज्म को शून्य बना देता है। लक्ष्मण का किरदार इसलिए भी मजबूत नहीं हुआ, क्योंकि उनके आसपास के दूसरे चरित्र कमजोर रहे। भरत से लेकर गुवे, उसकी मां, बन्ने चाचा और गुवे का विरोध करने वाले बस्ती के दूसरे किरदार भी आधे-अधूरे हैं। निर्देशक और लेखक के तौर पर कबीर खान इस बार फेल साबित हुए। 
परफारमेंस की बात करें, तो सलमान खान ठीकठाक ही रहे, लेकिन ज्यादातर वक्त वे जबरदस्ती की एक्टिंग करते नजर आए। अब तक सलमान खान की स्टाइल पर फिदा उनके फैंस अपने पसंदीदा सितारे की इस परफारमेंस को बहुत पसंद नहीं करेंगे। फिर भी कहा जा सकता है कि कमजोर किरदार होने के बाद वे ही फिल्म की जान हैं। सोहेल खान इस बार भी कमजोर रहे। मातिन की भोलीभाली अदाएं मनमोहक हैं, तो उनकी मां के किरदार में चीनी अभिनेत्री जु जू परदे पर अच्छी लगीं। 
उनकी डबिंग में कमजोरी है। संभवत अपनी आखिरी फिल्म में दिवंगत ओमपुरी अच्छे रहे। सहायक किरदारों में मोहम्मद जीशान अय्यूब, यशपाल शर्मा, ब्रिजेश काले ठीकठाक रहे हैं, लेकिन इनमें से कोई प्रभावी नहीं रहा। प्रीतम का म्यूजिक अच्छा है। रेडियो... गाना याद रह जाता है। बाकी गानों में बजरंगी भाईजान के संगीत को दोहराने की कोशिश हुई है। तकनीकी रूप से फिल्म ठीक है। एडिटिंग कमजोर है। सिनेमाटोग्राफी और कोरियोग्राफी अच्छी रही। 
सलमान की फिल्मों का इतिहास बताता है कि उनके फैंस कहानी, स्क्रीनप्ले या उनके किरदार को लेकर बहुत ज्यादा सोचना नहीं चाहते। इस आधार पर कहा जाए, तो ट्यूब लाइट जरूर जलेगी, लेकिन जो सोचना चाहेगा, उसके लिए ये ट्यूबलाइट पूरी तरह से फ्यूज लाइट है, जिसमें कोई करंट नहीं है। 
बाक्स आफिस पर फिल्म की बंपर ओपनिंग तय है। सोमवार को ईद के बाद फिल्म का कारोबार और बढ़ेगा। बाक्स आफिस पर चमकने वाली ट्यूब लाइट बाक्स आफिस का मुकाबला जीत सकती है, लेकिन बजरंगी भाईजान की तरह दिल जीतने का माद्दा इस फिल्म में नहीं है।
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