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संपादकीय
यूपीकोका का विरोध या अपराध का समर्थन
By Deshwani | Publish Date: 21/12/2017 12:53:19 PM
यूपीकोका का विरोध या अपराध का समर्थन

सियाराम पांडेय ‘शांत’

अपराध समाज पर दाग है। अपराध न हो, यह सुनिश्चित करना समाज का परम कर्तव्य है। इसके बाद भी अगर अपराध न थमता हो तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अपराध न होने दे। जरूरत पड़े तो अपराधी के खिलाफ निरोधात्मक कार्रवाई करे। राज्य सरकार के दायित्वों में यह बात भी शामिल है कि राज्य में अमन-चैन और भाईचारे का वातावरण बने। प्रेम-सौहार्द और परस्पर सहयोग का माहौल बने। सरकार ऐसा करती भी है लेकिन हम अपराध के लिए अकेले सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। देश में अमन-चैन का वातावरण बना रहे, यह सुनिश्चित करना हर नागरिक की विशेष जिम्मेदारी है। अपराध किसी भी स्वरूप में सामाजिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। अपराध और अपराधी को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। 

एक आंग्ल कहावत है कि ‘हेट इ सिन,नाट द सिनर।’ इसका अर्थ है कि पाप से घृणा करो। पापी से नहीं। यह इस बात का संकेत है कि पापी को सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए। दंड देना विकल्प नहीं है। देश में जेलों को सुधारगृह कहा जाता है। वहां अपराधियों को सुधारने और समाज व विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उन्हें शिक्षित किया जाता है। उन्हें श्रम करने का अभ्यस्त बनाया जाता है। उनका मानस बदलने के लिए उन्हें योगाभ्यास और साधना कराई जाती है। जेल में कुछ पहुंचे हुए संतों के प्रवचन आदि के आयोजन भी होते हैं। इन सारी प्रक्रियाओं का सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि सरकार चाहती है कि अपराधियों के जीवन में सकारात्मक बदलाव आए। प्रायश्चित की आग में झुलसकर वे अपने मूल मानवीय स्वरूप और जीवनमूल्यों को हस्तगत कर सकें। कुछ उदारवादी लोग अपराधियों के प्रति भी सहानुभूति रखते हैं। सहानुभूति रखना बुरा नहीं है। सत्संगति मिले तो दुष्टों की जिंदगी में भी बदलाव आ सकता है। अंगुलिमाल जैसा दुर्दांत दस्यु भी परम बौद्ध हो जाता है। अपने शेष जीवन को समाज के हित में समर्पित कर देता है। अगर महात्मा बुद्ध जैसा आईना दिखाने वाला हो तो असंभव कुछ भी नहीं है।

जो आदतन अपराधी हो गए हैं। अपराध जिनके लिए व्यापार हो गया है। ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति जहरीले सांप को जहर पिलाने जैसी होती है। ‘पयः पान भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनं।’ गलती से अपराध हो और अपराध करना आदत में शुमार हो जाए, इसका फर्क तो समझा ही जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने राज्य विधानसभा में यूपीकोका नामक एक विधेयक पास किया है। विधेयक का उद्देश्य में उत्तर में संगठित अपराध को नियंत्रित करना लेकिन विपक्षी दलों को सरकार का यह प्रयोग रास नहीं आ रहा है। उन्हें लग रहा है कि सरकार उनकी आवाज दबाने के लिए ऐसा कर रही है। दलितों और अल्पसंख्यकों को खत्म करने के लिए यूपीकोका बिल पास कर रही है। विपक्ष को ऐसा क्यों लगता है? यह विधेयक अपराधियों पर शिकंजा कसेगा। राजनीतिक दल बेवजह चिंतित हो रहे हैं। विपक्षी दलों को इस प्रदेश को यह आश्वस्ति तो देनी ही चाहिए कि वे किसके पक्ष में हैं अपराध के या समाज के। अपराधियों को लेकर अचानक उनकी चिंता के बादल क्यों उमड़ रहे हैं? 

हालांकि इस विधेयक को अभी राज्य सभा में पास होना है। इसके बाद यह बिल राज्यपाल के अनुमोदनार्थ भेजा जाएगा। अगर यह कानून बन जाता है जो बनना ही है तो उत्तर प्रदेश देश का कठोर कानून बनाने वाला तीसरा राज्य बन जाएगा। वर्ष 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने मकोका (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट) बनाया था। इसका मुख्य मकसद संगठित और अंडरवल्र्ड के अपराध को खत्म करना था। 2002 में दिल्ली सरकार ने भी इसे अपने यहां लागू कर दिया। फिलहाल महाराष्ट्र और दिल्ली में यह कानून लागू है।

उत्तर प्रदेश में विपक्ष इसे लेकर जिस तरह सदन में हाय-तौबा मचाए हुए है और योगी सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठा रहा है, उसकी गंभीरता को समझा जाना वक्ती जरूरत भी है और नजाकत भी। बसपा प्रमुख मायावती का आरोप है कि सरकार की मंशा इस कानून के तहत दलितों और अल्पसंख्यकों को जान-बूझकर फंसाने और उन्हें प्रताड़ित करने की है। यह कानून पूरी तरह से भाजपा की अल्पसंख्यक विरोधी नीति और मानसिकता का परिचायक है। 

मायावती की बात को एकबारगी सच मान भी लें जो योगी सरकार के सतही विरोध के सिवा कुछ भी नहीं है तो भी मायावती को वर्ष 2007 के उस कालखंड का अवलोकन तो करना ही चाहिए जब वे खुद उनकी सरकार यूपीकोका जैसा ही कानून लेकर आई थी। योगी सरकार यूपीकोका को लाने का श्रेय लेने के चक्कर में बेवजह विरोध के केंद्र में है। प्रदेश में यूपीकोका जैसे कानून को बोतल से बाहर निकालने का असल काम तो मायावती ने ही किया था। उस समय भी इसे मुसलमानों के खिलाफ हथियार माना गया था। उन दिनों एसटीएफ ने आजमगढ़ से आतंक के कई आरोपियों को गिरफ्तार किया था और नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी समेत कई संगठनों ने पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए थे। उस समय मायावती ने अपराध की जड़ों को समाप्त करने के लिए प्रभावी कानून की जरूरत बताई थी। आज जब वे सत्ता से बाहर है तो उन्हें कठोर कानून की अपनी ही बात क्यों नहीं याद आ रही है? 

मुलायम सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी भी इसका मुखर विरोध कर रही थी। मायावती की सरकार गिराने के लिए 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले ही सपा ने आतंक के आरोप में फंसे बेगुनाह मुसलमानों की रिहाई के लिए घोषणा पत्र भी जारी कर दिया था। अब जब योगी सरकार ने यूपीकोका बिल का प्रस्ताव तैयार किया तो सबसे पहले उसका विरोध सपा ने ही किया है। विधेयक के मसौदे को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद ही से नेता विरोधी दल राम गोविंद चैधरी ने यूपीकोका का विरोध शुरू कर दिया था। रिहाई मंच का आरोप है कि सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने के लिए यूपीकोका लागू किया जा रहा है।सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की मानें तो इस कानून से भाजपा अपना राज चाहती है। इसका डर दिखाकर वह विपक्ष को कमजोर करने का साजिश रच रही है। पहले से इतने कानून हैं उन्हें लागू नहीं करवा पा रही है। अपनी कमियों को छुपाने के लिए यूपीकोका लेकर आई है।

गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ ने बतौर मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश में सत्ता संभालने के बाद संगठित अपराध, माफियाओं पर शिकंजा कसने का आदेश दिया था। उन्होंने अपराधियों को सुधरने का पर्याप्त अवसर भी नहीं दिया तो सरकार उनसे निपटने के लिए जैसे को तैसा की रणनीति पर उतर आई। यूपीकोका के तहत संगठित अपराध जैसे अंडरवल्र्ड से जुड़े अपराधी, जबरन वसूली, फिरौती के लिए अपहरण, हत्या या हत्या की कोशिश, धमकी, उगाही सहित ऐसा कोई भी गैरकानूनी काम जिससे बड़े पैमाने पर पैसे बनाए जाते हैं, शामिल हैं। यूपीकोका के विरोध की एक वजह यह भी है कि इस कानून के तहत निरुद्ध आरोपी को आसानी से जमानत नहीं मिल पाएगी। पुलिस को आरोप पत्र दाखिल करने के लिए 180 दिन का वक्त मिलता है, जबकि भारतीय दंड विधान संहिता के तहत यह समय सीमा सिर्फ 60 से 90 दिन की है। यूपीकोका के तहत आरोपी की पुलिस रिमांड 30 दिन तक हो सकती है, जबकि आईपीसी के तहत यह अधिकतम 15 दिन की होती है।

इस अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत होने वाले अभियोग मंडलायुक्त तथा परिक्षेत्रीय पुलिस पर महानिरीक्षक की दो सदस्यीय समिति के अनुमोदन के बाद ही पंजीकृत किया जाएगा। इसमें किसी आरोपी के खिलाफ तभी मुकदमा दर्ज होगा, जब 10 साल के दौरान वह कम से कम दो संगठित अपराधों में शामिल रहा हो। संगठित अपराध में कम से कम दो लोग शामिल होने चाहिए। इसके अलावा आरोपी के खिलाफ एफआईआर के बाद चार्जशीट दाखिल की गई हो। अगर पुलिस 180 दिनों के अंदर चार्जशीट दाखिल नहीं करती, तो आरोपी को जमानत मिल सकती है। अब तक पुलिस पहले अपराधी को पकड़कर कोर्ट में पेश करती थी, फिर सबूत जुटाती थी। लेकिन यूपीकोका के तहत पुलिस पहले अपराधियों के खिलाफ सबूत जुटाएगी और फिर उसी के आधार पर उनकी गिरफ्तारी होगी। यानी कि अब अपराधी को कोर्ट में अपनी बेगुनाही साबित करनी होगी। सरकार पर विपक्ष का अविश्वास तो समझ आता है लेकिन आईएएस और आईपीएस अधिकारियों पर संशय का मतलब तो यह हुआ कि विपक्ष को इस देश के संविधान और व्यवस्था पर ही भरोसा नहीं है। 

सरकार के खिलाफ होने वाले हिंसक प्रदर्शनों को भी यूपीकोका में शामिल किया गया है। इस बिल में गवाहों की सुरक्षा का खास ख्याल रखा गया है। यूपीकोका के तहत आरोपी यह नहीं जान सकेगा कि किसने उसके खिलाफ गवाही दी है। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक बृजलाल और आईसी द्विवेदी भी मानते हैं कि यह योगी सरकार का बड़ा फैसला है। महाराष्ट्र और दिल्ली में संगठित अपराधों और आतंकवाद से निपटने में मकोका बहुत सहायक रहा है। इससे अपराधियों को रिमांड पर लेना आसान होगा। चार्जशीट दाखिल करने के लिए भी पुलिस को अतिरिक्त समय मिलेगा। अपराध नियंत्रण के लिए पुलिस को ऐसे ही सख्त कानून की जरूरत थी। 

विचारणीय है कि यूपीकोका क्या वाकई राजनीतिक साजिश है या विपक्ष अनावश्यक इसे हौव्वा बना रहा है। जब योगी सरकार ने इस कानून का मसौदा तैयार करते समय पूरी पारदर्शिता बरती है तब इसे जनविरोधी चश्मे से देखने का प्रयास कथमपि उचित नहीं है। कानून सबके लिए होता है। उसे अगड़े-पिछड़े और हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखना मुनासिब नहीं है। अपराधी अपराधी होता है। उसकी न कोई जाति होती है और न ही धर्म। वह केवल समाज का नासूर होता है। नासूर का समय रहते आॅपरेशन न हो तो बाकी अंग भी बेकार हो जाते हैं। विपक्ष की चिंता वाजिब नहीं है। कानून निर्दोषों के लिए नहीं होता। जो अपराध करेंगे ही नहीं, उन्हें कोई इस कानून के दायरे में जबरन निरुद्ध कैसे कर सकता है? और कदाचित अपवादस्वरूप ऐसा होता भी है तो मुकदमे का गुण-दोष परखने का काम ही तो इस देश की अदालतें करती हैं। क्या वे इतना भी नहीं करेंगी। सच तो यह है कि इस कानून के लागू होने के बाद अपराधियों के बीच भय का संचार होगा। पुलिस पर इस कानून के दुरुपयोग के आरोप लग सकते हैं लेकिन नए कायदे-कानून की शर्तें पूरी किए बगैर किसी भी व्यक्ति पर यूपीकोका नहीं लग सकता। अपराधियों का बचाव नहीं होना चाहिए लेकिन सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपराधियों की हेकड़ी न चलने देनेे के दावे तो करे लेकिन विपक्ष की चिंता पर भी ध्यान दे और अपनी ओर से इस बात का हर संभव प्रयास करे कि किसी भी निर्दोष पर इस कानून का चाबुक न चले। दिल्ली और महाराष्ट्र में जब मकोका जैसे कानून का दुरुपयोग नहीं हो रहा है। उससे विपक्षी दलों की आवाज नहीं दब रही है तो उत्तर प्रदेश में ऐसा कैसे मुमकिन होगा, इस पर भी विचार करने की जरूरत है।

(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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