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संपादकीय
राहुल की कप्तानी मतलब कांग्रेस का सफाया : सियाराम पांडेय ‘शांत’
By Deshwani | Publish Date: 22/11/2017 10:57:00 AM
राहुल की कप्तानी मतलब कांग्रेस का सफाया  : सियाराम पांडेय ‘शांत’

हाथ की सफाई दिखाने में कांग्रेस अद्वितीय है। आंख से काजल चुराना नामुमकिन है लेकिन कांग्रेस बेहद चतुराई से इस नामुमकिन को मुमकिन बनाती है कि लोगों को पता भी नहीं चलता। कांग्रेस राहुल गांधी को अध्यक्ष चुनना चाहती है। इसके लिए वह मानसिक रूप से तैयार भी है लेकिन वह देश को यह बताना चाहती है कि कांग्रेस में लोकतंत्र जिंदा है। उसके सारे निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से होते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी अध्यक्ष चुनने के लिए अधिसूचना, नामांकन, नामांकन वापसी और मतदान सब कुछ कराना चाहती है। देश की राजनीति में वंशवादी परम्परा विकसित करने वाली कांग्रेस कदाचित यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि राहुल गांधी के खिलाफ कौन कांग्रेसी खड़ा होगा? सोनिया गांधी को चुनौती देने की कितनी बड़ी कीमत सीताराम केसरी और जितेंद्र प्रसाद जैसे कद्दावर नेताओं ने चुकाई थी, यह किसी से छिपा नहीं है। पूर्व के दुखद वृत्तों को भूलकर कोई राहुल गांधी का प्रतिद्वंद्वी बनने और बहुत बेआबरू होकर कांग्रेस से बाहर जाने की हिमाकत क्यों करेगा? जल में रहकर मगर से वैर करने का वैसे भी कोई सिद्धांत नहीं है। जो अगर खुशामद से आमद होती हो, बात बनती हो तो मुलाखफत करना कहां की बुद्धिमानी है? 

जनवरी 2013 में राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया था। तभी से उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग कांग्रेसी करते रहे हैं। वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस का एक चिंतन शिविर भी आयोजित हुआ था, उसमें भी राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की भी मांग उठी थी, लेकिन तब सोनिया गांधी ने इस तरह का खतरा मोल नहीं लिया था क्योंकि उस समय नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सामना करने का साहस कांग्रेस जुटा नहीं पाई थी। वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से आठ माह पहले ही जगदीश टाइटलर ने राहुल गांधी को अध्यक्ष पद का दायित्व सौंपने की वकालत की थी। इसके पीछे उनका तर्क यह था कि तकनीकी रूप से सारे फैसले जब पहले ही राहुल गांधी ले रहे हैं तो पार्टी की कमान उन्हें सौंप देने में बुराई क्या है? यह अलग बात है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की बात अधिकांश कांग्रेसियों के गले नहीं उतरती। पार्टी का एक वर्ग राहुल गांधी को नेतृत्व योग्य मानता ही नहीं लेकिन अपनी इस बात को वह खुलकर व्यक्त भी नहीं कर पाता। राहुल को अध्यक्ष बनाने की पहल चार साल पहले ही आरंभ हो गई थी जिस पर अमल 5 दिसंबर को होगा और इसकी औपचारिक घोषणा 11 दिसंबर को हो जाएगी। सोनिया गांधी राहुल को कांग्रेस की कमान सौंपने की जल्दी में इसलिए भी हैं कि गुजरात और हिमाचल के चुनाव नतीजे आने के बाद एक बार फिर राहुल गांधी की योग्यता और अयोग्यता का सवाल मुखर हो जाएगा, उस हालात में राहुल की ताजपोशी मुश्किल होगी लेकिन जब वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएंगे तो विरोध की धार वैसे ही कुंद हो जाएगी। 

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का सपना तो यह था कि राहुल के नेतृत्व में हुई किसी चुनावी जीत के बाद उन्हें पार्टी की कमान सौंपी जाए लेकिन खुशी-खुशी बेटे को यह जिम्मेदारी सौंपने का उनका सपना अभी तक पूरा नहीं हो पाया। जीत को लेकर सोनिया गांधी के विश्वास का महल दरक गया है। शायद यही वजह है कि अपने निरंतर हारने वाले बेटे को भी वे कांग्रेस की कमान सौंपने को विवश हैं। उनकी जल्दीबाजी का सबब यह भी है कि अगर चुनावों में हार का ठीकरा फोड़ते हुए अगर राहुल गांधी की जगह किसी और नेता को पार्टी की कमान सौंपनी पड़ गई तो देश भर में फैली कांग्रेस की अरबों-खरबों की संपत्ति पर से नेहरू-गांधी परिवार का वर्चस्व खत्म हो जाएगा और यह स्थिति मां-बेटे के लिए बहुत मुफीद नहीं होगी। 

मणिशंकर अय्यर पहले ही कह चुके हैं कि मां-बेटे के रहते पार्टी में किसी का भला नहीं होगा। वे पार्टी के कद्दावर और वफादार नेता न रहे होते तो उनका हस्र भी राजस्थान के कांग्रेस नेता भंवरलाल शर्मा और केरल कांग्रेस के नेता टीएच मुस्तफा जैसा ही होता। उन्हें भी निलंबन का रास्ता दिखा दिया गया होता। पिछले साल कांग्रेस विधायक भंवरलाल शर्मा ने कहा था कि कांग्रेस के ऊपर नेताओं को थोपा नहीं जाना चाहिए। पार्टी के शीर्ष नेताओं को अब राहुल-प्रियंका के अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। उन्हें तत्काल प्रभाव से उन्हें निलंबित कर दिया गया था जबकि टीएच मुस्तफा ने राहुल गांधी को जोकर कहा था। गौरतलब है कि सोनिया गांधी 1998 से आज तक कांग्रेस की कमान संभाल रही हैं। वर्ष 2012 से पार्टी गतिविधियों से लेकर चुनावी रणनीति बनाने तक में राहुल गांधी की मुख्य भूमिका रही है। 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से लेकर अब तक जितने चुनाव राहुल के नेतृत्व में लड़े गए, उनमें लगभग हर चुनाव कांग्रेस हारी ही। उत्तर प्रदेश के पिछले दो विधानसभा चुनाव की बात करें या 2014 के लोकसभा चुनाव की, राहुल गांधी की रणनीति से कांग्रेस की फजीहत ही हुई है। 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 28 सीटों पर ही सिमटकर रह गई। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 8 सीटें मिलीं। 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 44 सीटें ही मिलीं। गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को चमत्कार की उम्मीद जरूर थी, यही वजह है कि उसने इस मौके पर राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का निर्णय लिया लेकिन जिस तरह नतीजा आने से पहले राहुल को कमान सौंपी जा रही है, उससे इतना तो तय है कि कांग्रेस ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जीत की उम्मीद छोड़ दी है। मतलब राहुल अब जो कुछ भी बनेंगे, वह कांग्रेस में ही बनेंगे। देश के लिए जनता उन्हें खारिज कर चुकी है।

इससे पहले राहुल गांधी जब विदेश जाते थे तो कांग्रेस डकार भी नहीं लेती थी लेकिन दो माह पहले कांग्रेस ने एक चमत्कारिक जानकारी इस देश को दी कि राहुल गांधी अमेरिका प्रवास पर हैं। 12 सितंबर को राहुल गांधी ने अमेरिका के बर्कले में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी सहित घरेलू राजनीति, कूटनीति, आर्थिक, सुरक्षा जैसे मुद्दों पर अपनी बात रखी थी। उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि लोकसभा चुनाव उनकी पार्टी इसलिए हारी कि उसमें अहंकार आ गया था। उन्होंने भारतीय राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद को भी सही ठहराया था। बर्कले में राहुल गांधी ने जो भाषण दिया था, वह इस बात का संकेत था कि पूर्व नियोजित ढंग से देश के लोगों को प्रभावित करने की कोशिश की गई थी। यह भी नहीं सोचा गया कि जिस राहुल गांधी को भारत की जनता नहीं सुन रही, उन्हें अमेरिका से भला वह क्यों सुनना पसंद करेगी? कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी को भारत के चुनाव के लिए इस्तेमाल करने के पीछे कांग्रेस की सोच राहुल गांधी की बौद्धिक छवि बनाने और उन्हें नरेंद्र मोदी के समानांतर प्रभावी दिखाने की थी लेकिन राहुल इस अवसर का सम्यक इस्तेमाल नहीं कर पाए। 

जब यह तय है कि, कांग्रेस पार्टी के संगठन चुनावों के बाद वह सोनिया गांधी की जगह ले लेंगे। राहुल गांधी का अमेरिका जाना, वहां संवाद करना और इस बात का संकेत देना कि वे पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी या फिर 2019 में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का दायित्व संभालने को तैयार हैं, आाखिर क्या साबित करता है। राहुल गांधी के अमेरिका में कार्यक्रम तय करने का दूसरा कारण वहां रहने वाले कांग्रेस समर्थक व्यापारियों, उद्योगपतियों का आशीर्वाद हासिल करना भी रहा। चुनाव में करोड़ों डॉलर खर्च होते हैं। वे एक तरह से इसका बंदोबस्त करने भी गए थे। स्विस बैंक के रुख, नोटबंदी और बेनामी कानून के बन जाने के बाद कांग्रेस की हालत खस्ता हो गई है और उसे बाहरी मदद की जरूरत हैं। राजीव गांधी के तकनीकी सलाहकार सैम पित्रोदा, भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा, शशि थरूर और सन माइक्रोसिस्टम के अरबपति सह संस्थापक विनोद खोसला को राहुल गांधी का दिमाग माना जाता है। जानकार बताते हैं कि राहुल गांधी इन्हीं के दिमाग से चलते हैं।

जहां तक भारतीय राजनीति में सर्वप्रथम परिवारवाद की मजबूत नींव डालने का सवाल है तो यह काम 1929 में मोतीलाल नेहरू ने किया था। आजादी के बाद से ही देश की सत्ता और कांग्रेस पार्टी पर इस परिवार का कब्जा रहा है। 69 साल में 48 साल तक इस परिवार ने राज किया, 38 साल सीधे-सीधे और 10 साल तक मनमोहन सरकार के रूप में अपने पास रखी। परिवार की तीन पीढ़ियों के प्रतिनिधि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री के पद पर काबिज रहे। यूपीए सरकार में भी सत्ता की कमान परोक्ष रूप से राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी के पास रहीं। कांग्रेस की लगातार शिकस्त के बाद भी वे पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और हर चुनाव में पाजय का दंश झेलने के बाद भी उनके पुत्र राहुल गांधी की तरक्की हो रही है। राजीव गांधी के भाई संजय गांधी हों या राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा, कांग्रेस पार्टी के भीतर इनके कद का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। जेल जाने की स्थिति ने बिहार सरकार का मुखिया अपनी अनपढ़ पत्नी रावड़ी देवी को बनाया था और बहुत ही स्पष्टवादी तरीके से कहा था कि उनका परिवार बिहार का नेहरू परिवार है। यह अलग बात है कि ऐसा साहस उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव आज तक नहीं दिखा सके। 

अगले कुछ दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने जा रहे राहुल गांधी की हाल के वर्षों में संसद में उपस्थिति भी काबिलेगौर है। 16वीं लोकसभा में उनकी उपस्थिति 54 फीसद रही, जबकि 15वीं लोकसभा में 43 फीसद थी। जो व्यक्ति संसद को लेकर इतना अगंभीर रहा हो, उसे कांग्रेस की कमान सौंपना कितना व्यावहारिक होगा, इस बावत भी गहन आत्ममंथन की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस राय में दम है कि कांग्रेस जैसी वंशवादी पार्टी से और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर भाजपा की राह हो जाएगी। देश को कांग्रेस मुक्त करने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। अब यह सोनिया और राहुल को ही तय है कि वे भविष्य में किस तरह की कांग्रेस के दीदार करना चाहेंगे।जिस दल में योग्यता का सम्मान नहीं होता। पार्टी को धार्तराष्टी चश्मे से देखा जाता है, उस दल का ईश्वर ही मालिक है। कांग्रेस का राजनीतिक क्षरण रोकना है तो उसे वंशवादी खांचे से बाहर आना होगा। जो कांग्रेस को आगे ले जा सके, दायित्व उसे ही सौंपा जाना चाहिए। यह भी सोचा जाना चाहिए कि राहुल की कप्तानी में कहीं कांग्रेस पूरी तरह डूब तो नहीं जाएगी?

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं)

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