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संपादकीय
राष्ट्रगान पर कुछ मदरसों का व्यवहार अनुचितः सियाराम पांडेय ‘शांत’
By Deshwani | Publish Date: 17/8/2017 4:43:03 PM
राष्ट्रगान पर कुछ मदरसों का व्यवहार अनुचितः सियाराम पांडेय ‘शांत’

आजादी की 70 वीं सालगिरह पर उत्तर प्रदेश के कुछ मदरसों का व्यवहार चुभने वाला रहा। इस बार उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड की ओर से सभी मदरसों को यह आदेश दिया गया था कि वे अपने यहां राष्ट्रध्वज फहराएं और राष्ट्रगान गाएं। इतना ही नहीं, इसकी वीडियोग्रॉफी कराकर जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारियों को भेंजे। जाहिर तौर पर मदरसा बोर्ड का यह निर्णय उत्तर प्रदेश में मजहबी सौहार्द को बढ़ाने के लिहाज से था। इससे पहले कई मदरसों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे राष्ट्रगान से परहेज करते हैं। तिरंगा फहराने की बजाय मदरसों में इस्लामिक झंडा फहराते हैं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस समारोह के अवसर पर इसे लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड ने इस बार दूर की कौड़ी खेली थी। अगर मदरसों ने उसके निर्णय पर शत प्रतिशत अमल किया होता तो हिंदुओं की नजर में तो उनकी इज्जत बढ़ती ही, देश में आतंक का कारोबार कर रहे लस्कर-ए-तैयबा हिज्बुल मुजाहिदीन, आईएसआईएस जैसे तमाम आतंकवादी संगठनों का मनोबल गिरता। आतंकवादियों का समर्थन करने वाले भारत द्रोही देश पाकिस्तान तक यह संदेश जाता कि भारत के मुसलमानों को बरगलाया नहीं जा सकता। उनकी राष्ट्रभक्ति पर सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन मदरसों ने,कुछ जिद्दी किस्म के मौलानाओं ने और खासकर बरेली मसलक के मौलाना ने मदरसा बोर्ड की इस मंशा पर पानी फेर दिया। उनके बहकावे में आकर मदरसों में राष्ट्रध्वज तो फहराए गए लेकिन राष्ट्रगान नहीं गाए गए। यह सब किया गया मजहब के नाम पर। शरिया कानून का हवाला देकर। 
एक मुस्लिम नेता ने तो यहां तक कह दिया कि वे डंके की चोट पर राष्ट्रगान नहीं गाएंगे क्योंकि उनका धर्म उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। वे पहले मुसलमान हैं और बाद में हिन्दुस्तानी। गनीमत है कि उन्होंने खुद को हिन्दुस्तानी मान लिया। अगर वे खुद को हिन्दुस्तानी नहीं मानते तो भी कोई उनका क्या बिगाड़ लेता? हिन्दू या मुसलमान होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है इंसान होना। नागरिक होना बड़ी चीज है और उससे भी बड़ी बात है देश के प्रति अपने नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह। मदरसे इस मामले में कहीं बड़ी चूक कर गए हैं। एक फिल्मी गीत है कि ‘मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानो तो बहता पानी। किसी के मां मानने और न मानने से गंगा का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने ताल ठोककर अमेरिका में कहा था कि मैं उस देश का रहने वाला हूं जहां के पत्थर भी देवता हैं और नदियां भी मां है। अपने देश पर अभिमान तो होना ही चाहिए। यह सच है कि इस्लाम बुतपरस्ती में यकीन नहीं करता लेकिन मस्जिद के किसी एक खास कोने की ओर मुंह करके ही उसके अनुयायी नमाज अदा करते हैं। अल्लाह को सिजदा करते हैं। जितनी श्रद्धा, आस्था हिंदुओं की मंदिरों के प्रति होती है, उतनी मुसलमानों की मस्जिद के प्रति होती है। मंदिर और मस्जिद न हों तो भी ईश्वर तो है ही, उसके प्रति विश्वास तो है ही। देश इसी तरह का विश्वास है और इस विश्वास को किसी भी कीमत पर खंडित नहीं होने देना चाहिए। 
कई मौलानाओं ने मदरसा बोर्ड की राय का सम्मान भी किया लेकिन कुछ मौलानाओं ने राष्ट्रहित के इस निर्णय को धता बताने की जो शातिराना कोशिश की, उसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है। पहली बात तो राष्ट्रगान की कुछ पंक्तियों पर ही ऐतराज किया गया। तर्क दिया गया कि रवींद्रनाथ टैगेर ने राष्ट्रगान राष्ट्र के लिए नहीं, लार्ड पंचम की प्रशंसा में लिखा था। उनका भाग्य विधाता खुदा ही है। खुदा के अलावा वे अन्य किसी को अपना भाग्य विधाता नहीं मानते। भाग्य विधाता तो सबका ईश्वर ही है। व्यक्ति किसी का भाग्य विधाता नहीं हो सकता लेकिन जन्मभूमि का दर्जा तो मां से भी अधिक है।‘ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अब इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि इस देश के अल्पसंख्यक भारत को देश तो मानते हैं लेकिन माता नहीं मानते। माता-पिता भाग्य विधाता नहीं होते लेकिन बच्चे का भाग्य बहुत कुछ उनकी त्याग, तपस्या और बलिदान से भी तय होता है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। देश और धर्म में अगर किसी एक को चुनना हो तो बड़ी समस्या होती है लेकिन हमें यह भी मानना होगा कि धर्म के लिए देश जरूरी है और देश के लिए धर्म। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। नीति कहती है कि ‘धनाद् धर्मः ततः सुखम।’ धन से धर्म होता है और धर्म से सुख होता है। धन देश में ही कमाया जा सकता है। देश कोई भी हो सकता है लेकिन धन कमाने के लिए देश जरूरी है। इसलिए धर्म के लिए देश को दोयम दर्जे पर रखना तर्कसंगत नहीं है। 
कुछ दिनों से देश में एक नई बहस चल रही है। कई नेता इस आशय की राय जाहिर कर चुके हैं कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। वे डरे-सहमे हुए हैं। क्या किसी अन्य देश में भी इस बात की आजादी है कि उस देश की संप्रभुता को खुली चुनौती दी जाए। वहां के राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज की बेकदरी की जाए। ऐसा भारत में ही मुमकिन है। दुनिया का एक भी देश धर्म निरपेक्ष नहीं है लेकिन हिन्दुस्तान में धर्म निरपेक्षता की हवा चल रही है। लंबे अरसे से चल रही है। प्रकृति और उसके उपादान तक धर्म सापेक्ष हैं। कर्तव्य से बंधे हैं। अग्नि का धर्म तपना है। वायु का धर्म बहना है। पानी का धर्म शीतलता प्रदान करना है। सूर्य का धर्म समय पर उगना, अस्त होना और प्रकाश देना है। चंद्र का धर्म प्रकाश देना और शीतलता प्रदान करना है। जब प्रकृति अपने धर्म से पीछे नहीं हटती तो इंसान कैसे धर्म निरपेक्ष हो सकता है? राष्ट्रगान की इबारत को लेकर सवाल उठ सकता है। वह किन परिस्थितियों में लिखा गया, क्यों लिखा गया, यह मायने नहीं रखता जितना यह कि मौजूदा समय में वह देश का प्रशस्ति गान है। देश ही नहीं, देश का संविधान भी इसकी मान्यता देता है। अल्पसंख्यकों को सोचना चाहिए कि वे देश से अलग नहीं हैं। उन्हें बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि वे आज भी संशय की नजर से क्यों देखे जाते हैं? सवाल जहां पैदा उठता है, उसका उत्तर भी वहीं होता है। समस्या जहां पैदा होती है, उसका समाधान भी उसके आस-पास ही होता है। रोग जहां पैदा होता है, उसकी औषधि भी वहीं कहीं उपजती है। अल्पसंख्यक अगर तहे दिल से विचार करेंगे तो उनके सवालों का जवाब भी उन्हें अपने पास ही मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘कोऊ न काहू सुख-दुख कर दाता। निज कृत कर्म भेग सब ताता।’ सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है। प्रेम देकर ही प्रेम पाया जा सकता है। इस बात को जब तक सलीके से हृदय में बैठाया नहीं जाएगा, तब तक संशय की दीवारों को मानस पटल से हटा पाना मुश्किल होगा।
बरेली के उपायुक्त ने दावा किया है कि जिन मदरसों में राष्ट्रगान नहीं गाने के दावे किए जा रहे हैं, जहां से ऐसा न किए जाने की शिकायत मिलेगी, जहां से इस आशय के वीडियो नहीं मिलेंगे, उन मदरसों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी। जहां तक आदेशों के अनुपालन का सवाल है तो इस क्रम में यह दावा वाजिब लगता है। सरकार को, उसके मातहत अधिकारियों को अपने आदेशों के अनुपालन का ध्यान तो रखना ही चाहिए लेकिन राष्ट्रगान न गाने से कोई व्यक्ति राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं बन जाता। जब तक कि वह कोई राष्ट्र विरोधी कृत्य न करे, उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती। मदरसों पर कार्रवाई की जा सकती है। उनका अनुदान थोड़े समय के लिए रोका जा सकता है लेकिन चेतावनी देकर उन्हें क्षमादान दिया जा सकता है। उनसे स्पष्टीकरण मांगा जा सकता है लेकिन सीधे इतनी कड़ी कार्रवाई का विचार उचित नहीं है। दंड अपराध के हिसाब से तय होते हैं। छोटे अपराध का इतना बड़ा दंड वाजिब नहीं है। इस पर विचार किए जाने की जरूरत है। रही बात राष्ट्रगान की प्रासंगिकता की तो सभी दलों से सलाह मशविरा कर इसमें तब्दीली भी की जा सकती है। देश का नया राष्ट्रगान भी लिखा जा सकता है। साहित्यकार विनोद शंकर मिश्र ने कभी राष्ट्रगान को थोड़ा और बड़ा किया था। उसमें कई नए प्रांतों के नाम जोड़े थे। जो प्रांत विभाजन के बाद बांग्लादेश और पाकिस्तान में चले गए हैं, उन्हें हटाया भी था और अपने संशोधित राष्ट्रगान की प्रति तत्कालीन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और देश के कई सांसदों को भेजी थी। यही नहीं उन्होंने एक संयुक्त राष्ट्रगान भी लिखा था और उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव बुतरस बुतरस घाली को विचारार्थ भेजा था। अगर राष्ट्रगान मौजूदा स्वरूप में गाने पर कुछ लोगों को आपत्ति है तो इसमें परिवर्तन किया जा सकता है लेकिन किसी भी व्यक्ति को धर्म के आधार पर राष्ट्रगान के निरादर की अनुमति नहीं दी जा सकती। देश सर्वोपरि है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही इस बात की घोषणा कर चुके हैं कि इस देश का एक ही ग्रंथ है संविधान। यह देश संविधान से ही चलेगा किसी धर्मग्रंथ के आधार पर नहीं। इसके बाद भी अल्पसंख्यक संविधान को नहीं मान रहे हैं। तीन तलाक के मामले में वे अभी भी शरिया के नियम पर ही अड़े हैं। देश इक्कीसवीं सदी में पहुंच गया है और वे अभी भी गुजरे जमाने की यादों में जी रहे हैं। अच्छा होता कि इस देश का अल्पसंख्यक तबका देश के साथ चलने की कोशिश करता। वह रहीम और रसखान से प्रेरणा लेता। जायसी से प्रेरणा लेता। कबीर की साखी, सबद -रमैनी पर ही गौर कर लेता। इस्लाम सबसे अच्छा धर्म है, वह न तो हिंसा की इजाजत देता है और न ही किसी का दिल दुखाने की। राष्ट्रगान न गाकर क्या अल्पसंख्यक देशवासियों का दिल नहीं दुखा रहे हैं? हिन्दुस्तान में एक भी अल्पसंख्यक असुरक्षित नहीं है। पाकिस्तान और अन्य अरब देशों में अल्पसंख्यक ही अल्पसंख्यकों की जान के दुश्मन बने हुए हैं। भारत में ऐसा हरगिज नहीं है। मदरसे इस्लामिक शिक्षा के केंद्र हैं। इस नाते भी उनसे अपेक्षाएं ज्यादा हैं। राष्ट्रीय भावना का अगर वहां से प्रचार-प्रसार नहीं होगा तो और कहां से होगा? हाल ही में राज्य के कुछ मदरसों से आतंकियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इसलिए भी मदरसों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह देश हित की भावनाओं को आगे बढ़ाएं। इस साल जो हुआ सो हुआ लेकिन देश के अगले ऐतिहासिक पर्वों पर इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसका विचार तो किया ही जाना चाहिए। राष्ट्रगान पर राजनीति न हो तो ही अच्छा है। उत्तर प्रदेश को सर्वोत्तम प्रदेश बनाना है तो इस तरह की दकियानूसी सोच से ऊपर उठना होगा। 
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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