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संपादकीय
सच्चाई परोसें मगर देश का मनोबल बचा करः सियाराम पांडेय ‘शांत’
By Deshwani | Publish Date: 23/7/2017 3:11:47 PM
सच्चाई परोसें मगर देश का मनोबल बचा करः सियाराम पांडेय ‘शांत’

एक अखबार में महालेखा परीक्षक (कैग)की रिपोर्ट के हवाले से देश को बेहद विस्मयकारी जानकारी दी गई है। कहा गया है कि भारत के पास इतना भी गोला-बारूद नहीं है कि वह दस दिन भी चीन का सामना कर सके। सवाल उठता है कि इस खबर से किसका हित सधता है? देश का मनोबल तोड़ने वाली इस खबर के उत्पादन का मकसद क्या है? महालेखा परीक्षक (कैग)की रिपोर्ट हर साल आती है। कैग देश और राज्यों में चल रही योजनाओं का अध्ययन करता है। सभी विभागों की कार्यशैली का अध्ययन करता है। सरकारी धन के उपयोग और दुरुपयोग का मूल्यांकन करता है और एक विस्तृत रिपोर्ट सरकार के सामने रखता है। इस रिपोर्ट के आधार पर सांसद और विधायक संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं और विधान परिषदों में बहस करते हैं। भ्रष्टाचार पर कैसे अंकुश लगे, भ्रष्टाचारियों को क्या सजा दी जाए, इस पर मंथन होता है। आत्म मूल्यांकन नितांत व्यक्तिगत चीज है। आत्ममूल्यांकन सार्वजनिकता की वस्तु नहीं है। कैग की रिपोर्ट पर भी यही बात लागू होती है। कैग की रिपोर्ट एक तरह का सरकारी और गोपनीय दस्तावेज है जो सरकार को अपनी स्थिति में सुधार-परिष्कार की प्रेरणा देता है।
अखबारों को और खासकर इलेक्ट्राॅनिक चैनलों से जुड़े लोगों को किसी भी खबर को प्रकाशित और प्रसारित करने से पहले इस बात का भी विचार करना चाहिए कि वे उस खबर को किसके लिए और क्यों प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। उस खबर से किसका किस तरह का हित या अहित होगा। बिना बिचारे पब्लिक फ्रंट पर लाई गई खबर भावोद्रेक, तनाव, दंगा- फसाद और कलह का ही कारण बनती है। आज भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति है। पिछले कई दिनों से दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। चीन लगातार युद्ध की धमकी दे रहा है। संबंधित अखबार और कुछ पोर्टलों पर चली इस खबर को पढ़ने के बाद भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ेगा या घटेगा, यह विचारणीय बात है। देश के लोग अपने को असुरक्षित महसूस करेंगे या नहीं, यह भी गहन आत्मंथन और विमर्श का विषय है। ऐसे अखबारों और मीडिया संस्थानों को चीन के अखबारों से प्रेरणा लेनी चाहिए जो गूगल मैप में भारत के मुकाबले चीन के कम चमकने की भी आलोचना करते हैं और इसे अपने देश के खिलाफ साजिश करार देते हैं। चीन का एक अखबार तो निरंतर भारत को धमकाता फिर रहा है।
क्या भारत के किसी भी पत्रकार ने कभी चीन को धमकाने का साहस किया? अलबत्ते कुछ भारतीय पत्रकार भारत का मनोबल तोड़ने में ही जुटे रहे। वे अपने अखबार और बेव पोर्टलों के जरिए पूरी दुनिया को यह बताने में जुटे रहे कि चीन के मुकाबले भारत की ताकत कुछ भी नहीं है? मसलन चीन के पास कितने सैनिक हैं। भारत के पास कितने सैनिक हैं। दोनों देशों के पास कितने टैंक हैं, कितनी मिसाइलें हैं। कितने परमाणु हथियार हैं आदि-आदि। इस तरह का तुलनात्मक विश्लेषण करने का उत्साह भारतीय पत्रकारों ने दूसरे देश के किसी पत्रकार में भी देखा है क्या? भारतीय पत्रकार क्या यह बता सकते हैं कि जब अमेरिका के पेंटागन और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ तो उसमें कितने लोग मारे गए? दोनों इमारतें ढह गई थीं। ऐसा तो नहीं कि वहां के पत्रकारों के खून में आक्रोश और गम नहीं होता लेकिन उन्होंने अपना राष्ट्रधर्म निभाया। पत्रकारिता धर्म निभाया। उन्होंने इस घटना की निंदा की। आलोचनाओं से पृष्ठ के पृष्ठ रंग गए लेकिन उन्होंने अमेरिका को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। इसके विपरीत जब भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में आतंकी हमला हुआ तो भारतीय पत्रकारों ने जिस तरह लाइव दिखाया, उसे देखकर पाकिस्तान में बैठे आतंक के सरगनाओं ने ताज होटल में फंसे अपने आतंकी साथियों को निर्देश दिया। इससे एसटीएफ और पुलिस के जवानों को परेशानी का सामना करना पड़ा। कई बहादुर अधिकारियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
अब सवाल यह उठता है कि इस उत्साह को भारतीय पत्रकारों की बहादुरी कहें या मूर्खता, इस दिशा में भी सोचे जाने की जरूरत है। पत्रकारिता व्यवसाय ही नहीं, धर्म भी है। क्या और कितना छापना चाहिए, यह संपादक का विवेक होता है। कौन सी खबर कब ,किस तरह से और कितना अधिक कही जानी चाहिए, यही पत्रकारिता का निचोड़ भी है। आजकल पत्रकारिता के नाम पर जिस तरह की आजादी की उम्मीद की जा रही है, उसे किसी भी लिहाज से देश हित के अनुकूल नहीं ठहराया जा सकता। सरकार ने जब कभी मीडिया संस्थानों के लिए आचार संहिता बनानी चाही तब भारतीय पत्रकारों ने अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला देकर उसका विरोध किया। सरकार भी कह रही है कि भारतीय मीडिया संस्थान अपनी आजादी खुद तय करें। वे अपने लिए खुद आचार-संहिता बनाएं। देश बड़ा है या पत्रकारिता, यह तय तो करना ही पड़ेगा। पत्रकारिता सुविधा का संतुलन नहीं है, यह दुधारी तलवार पर चलने का प्रयास है। हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि हम आजादी चाहते हैं या स्वच्छंदता?
सवाल उठता है कि क्या देश की भावनाओं से खेलना, शत्रु देशों के सामने भारत को नीचा दिखाना ही अभिव्यक्ति की आजादी है? । भारतीय पत्रकारों ने कर्ण के सारथी मामा शल्य की कहानी या तो पढ़ी नहीं या उसका गूढ़ार्थ नहीं समझा। पत्रकार देश का मित्र होता है और मित्र का काम गोपनीयता को बनाए रखना होता है। गुणों को प्रकट करना होता है।‘गुह्यं निगुहति गुणान प्रकटी करोति।’ शल्य ने कर्ण का रथ जरूर हांका लेकिन वे उसे निरंतर हतोत्साहित करते रहे। क्या पत्रकारों का एक तथाकथित बौद्धिक वर्ग ऐसा ही नहीं कर रहा है। यह सच है कि भ्रष्टाचार और मक्कारी इस देश की बहुत बड़ी समस्या है और देश के गद्दार देश को कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। ऐसे लोगों को चिह्नित करने और उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है। अपने देश में आतंकियों का साथ देने वाले पत्थरबाज को भी जब सेना मानव ढाल बना लेती है तो उसकी भी आलोचना होती है और मानवाधिकार आयोग सेना पर जुर्माना तक लगा देता है। अभिव्यक्ति की जैसी स्वतंत्रता भारत में हैं,वैसी आजादी दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। इस आजादी का गलत इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। यह सच है कि सेना में कुछ लोगों ने देशी बोफोर्स तोप धनुष बनाने में भ्रष्टाचार किया है। युद्ध के लिए रिजर्व गोला बारूद रखने में लापरवाही बरती है लेकिन यह मौका अपनी कमी को उजागर करने का नहीं है। संबंधित अधिकारी दंड के पात्र हैं, दंडित होंगे भी लेकिन समय देखकर। मौजूदा समय भारत और चीन के बीच तनाव का है। इस बड़े अखबार की खबर को सच मानकर अगर चीन भारत पर आक्रमण कर दे तो इससे देश को नुकसान होगा। हम भारतीय पत्रकारों को देश के हिताहित का भी ध्यान रखना है। टीआरपी और प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में खुद को सबसे आगे रखने की होड़ में हम देश को पीछे नहीं छोड़ सकते।
इस देश को अपनों के विश्वासघात की कीमत चिरकाल की गुलामी के रूप में चुकानी पड़ी है लेकिन आज भी देश से घात करने का सिलसिला थमा नहीं है। कथित तौर पर खुद को बौद्धिक कहने वाला समाज भी अपने तुच्छ फायदे के लिए देश को व्यापक नुकसान पहुंचाने से बाज नहीं आता। ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ वाली कहावत हर मोड़ पर सुनने को मिल जाती है। भारत के साथ ही आजाद हुए दुनिया के कई देश आर्थिक तरक्की के मामले में कहां से कहां पहुंच गए लेकिन भारत आज कहां है, इस पर विचार किया जाना चाहिए। अनगिनत आक्रमणों और लूट-खसोट के बाद भी अगर आज भारत का वजूद बना हुआ है तो यह उसकी अंदर की मजबूती ही है। इकबाल को अगर यह लिखना पड़ता है कि सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी तो इसके मूल में भारत की खासियत ही है। भारत कोे चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से तो खतरा है ही, लेकिन उससे कम खतरा अपनों से भी नहीं है। कुछ लोग निजता की रक्षा के नाम पर, व्यक्तिगत आजादी के नाम पर देश से खुला द्रोह करते हैं। खबर छिपाई और दबाई नहीं जानी चाहिए। देश को सच जानने का अधिकार है लेकिन सच बताने का भी एक माकूल समय होता है। काश भारतीय पत्रकार इस युग सत्य पर भी विचार कर पाते।



 

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