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संपादकीय
मायावती का आक्रोश बनाम संसदीय नियम
By Deshwani | Publish Date: 18/7/2017 8:13:21 PM
मायावती का आक्रोश बनाम संसदीय नियम

डॉ. प्रभात ओझा

बसपा सुप्रीमो बहन मायावती गुस्से में हैं। उनकी नाराजगी का कारण उनके समर्थकों के बीच बखूबी समझा जायेगा। मान्यवर कांशीराम ने डीएस फोर के जरिए दलित स्वाभिमान की जिस लड़ाई को राजनीतिक संगठन, बहुजन समाज पार्टी के जरिए शुरू किया था, मायावती आज उसकी झंडाबरदार हैं। इस कारण उनका दायित्व बनता ही है कि वह कांशीराम की परम्परा को आगे बढाएं। यही कारण है कि आज मंगलवार को राज्यसभा में वह सहारनपुर में दलित अत्याचार की घटना पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखते समय तेवर में थीं। वह कहती हैं कि जहां-जहां बीजेपी की सरकार है, उन राज्यों में दलित अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं। इस पर बोलते हुए और सहारनपुर की कथा कहती हुईं मायावती को उपसभापति ने उन्हें मिले समय की समाप्ति का अहसास कराया। बहनजी बोलती गईं, इस बीच घंटी बजी और वह उग्र हो गईं। तेज आवाज में उनका स्वर था कि जब उन्हें बोलने ही नहीं दिया जायेगा, तो इस सदन का सदस्य बने रहने का क्या औचित्य है? सभापति की आसंदी पर विराजमान उपसभापति ध्यान दिलाते हैं कि माननीय सदस्य बहस में अपनी बात रख सकती हैं। फिर भी बहनजी हैं कि लिखा भाषण छोड़कर संक्षेप में अपनी बात रखने का अहसास कराते हुए फिर घटना के विवरण पर आती हैं। उपसभापति सचेत करते हैं कि प्रस्ताव में भाषण नहीं हो। यह बसपा नेत्री को नागवार गुजरता है, वह अपनी बात नहीं सुने जाने की शिकायत करते हुए सदन का यह कहते हुए बहिर्गमन करती हैं कि वह इस सदन की सदस्यता छोड़ देंगी।
बसपा सुप्रीमो ने अपने लोगों में यह बात पहुंचाने की कोशिश की है कि उनको चाहने वालों का दर्द ही नहीं सुना जायेगा तो वह सांसद भी नहीं रहेंगी। बहनजी राज्यभा की सदस्यता छोड़कर अगले कुछ महीने संगठन के जरिए बहुजन समाज में अपनी बात रखती हुईं दिख सकती हैं। वह अप्रैल,2918 तक राज्यसभा की सदस्य हैं। राज्यसभा से इस्तीफा देने की स्थिति में अपनी पार्टी के दम पर वह पुनः इस सदन की सदस्य नहीं हो सकतीं। कारण यह है कि मतदाता के रूप में उनके दल के विधायकों की संख्या मात्र 19 ही है। ऐसे में उन्हें किसी और दल की मदद लेनी पड़ सकती है। फिलहाल तो मायावती के राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवार बनने की स्थिति में इस पर विचार करना चाहिए। फिर भी दलित उत्पीड़न पर उनके पीछे कांग्रेस ने भी जिस तरह बहिष्कार किया, उसके कुछ संकेत होते हैं। सीपीएम के सीताराम येचुरी ने भी बसपा प्रमुख को सदन में अपनी बात रखने से रोकने की शिकायत दर्ज कराई। कुछ मिलाकर बहनजी दलित उत्पीड़न के सवाल पर आवाज बनती हुई दिख रही हैं। यह उनके लिए जरूरी सा हो गया है। इसका आभास उनके बहिर्गमन के ठीक बाद सरकार की ओर से राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कराया। उन्होंने कहा कि मायावती जी न तो अपने समुदाय के लोगों की आवाज उठा रही हैं और न ही प्रदेश की कानून व्यवस्था पर बोलना चाहती हैं। सच यह है कि बसपा का पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जो पराभव हुआ है, उससे वे विचलित हैं और अपने खत्म होते जनाधार के लिए परेशान हैं। 
पहले राज्यसभा में मायावती और नकवी के बयान के आलोक में उत्तर प्रदेश की सच्चाई पर नजर डालें। लोकसभा चुनाव जैसे-तैसे गुजरा तो माना गया कि नरेंद्र मोदी केंद्र में कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों और अन्य समस्याओं के खिलाफ जिस तरह आवाज बने, अपार बहुमत उनके साथ हो चला। इस बहुमत में कतिपय अल्पसंख्यक मतों के साथ बहुमत वाले दलित भी थे। बहनजी को आगे विधानसभा चुनाव से उम्मीद थी, पर इस बार भी वही हाल। मायावती उम्मीद पाले बैठी थीं कि राज्य की सपा सरकार और केद्र की राजग गठबंधन वाली मोदी सरकार के खिलाफ लोगों के स्वाभाविक विरोध का वह लाभ ले सकेंगी। उनकी मुराद न केवल अधूरी रही, बल्कि विधानसभा में उनकी पार्टी और बदतर हाल में पहुंच गई। खास बात यह कि लोकसभा की तरह एक बार फिर विधानसभा के लिए बहुमत दलित का मत भी बीजेपी को ही मिला। अब अपने समर्थकों को भरोसा जीतने के लिए मायावती को जरूरी लगता है कि वह फिर से दलितों का विश्वास हासिल करें। इसीलिए वह दलित मामलों पर बीजेपी विरोध का कोई भी अवसर चूकना नहीं चाहतीं। 
सदन में विपक्ष सरकार को सचेत न करे तो यह उसके अपने दायित्व से भागने की तरह होगा। बहन जी विपक्षी दायित्व का निर्वाह करना चाहती हैं, पर अपने लोगों को भावावेश में डालने के लिए वह बड़ी चतुराई से संसदीय परम्पराओं को दरकिनार कर देना चाहती हैं। इस पर चर्चा होगी कि आज सदन में वह ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रख रही थीं, अभी उस पर बहस नहीं हो रही थी। उनका प्रस्ताव चर्चा के लिए स्वीकृत हो जाता, फिर विपक्ष के दूसरे साथियों के साथ उनकी आवाज और बुलंद हो सकती थी। अभी तो वह अपना प्रस्ताव खुद को मिले समय से कम में भी रख सकती थीं। इसके विपरीत ऐसा नहीं कर जिस रौ में वे बोल रही थीं, लगता है कि खोते जा रहे दलित जनाधार को हासिल करने की बहुत जल्दी में हैं। इसीलिए बात नहीं सुने जाने पर वह सदस्यता छोड़ने की धमकी देते हुए बाहर निकल आईं। उनका यह आचरण संसदीय मर्यादाओं के लिहाज से कितना उचित है, बहस इस पर होगी। सदन में अपनी बात कहने और बाहर अपने लोगों में लोकप्रियता बनाये रखने के बीच संतुलन साधे रखना कुछ ही सांसदों के बस की बात रही है। 
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